गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 40
शकुनि के जीव स्वरूप शुक का निधन नारद जी कहते हैं- राजन् ! शकुनि के चले जाने पर कमल नयन भगवान श्रीकृष्ण ने प्रद्युम्न आदि समस्त यादवों को बुलाकर इस प्रकार कहा। श्री भगवान बोले- पूर्वकाल में सुमेरु पर्वत के उत्तर भाग में इस शकुनि नामक दैत्य ने चार युगों तक निराहार रहकर तपस्या द्वार भगवान शिव को संतुष्ट किया। चार युग व्यतीत हो जाने पर साक्षात महेश्वरदेव ने प्रसन्न होकर दर्शन दिया और कहा- ‘वर मांगो। दैत्य शकुनि ने उनको प्रणाम किया। उसका रोम-रोम खिल उठा और नेत्रों में प्रेम के आंसू छलक आये। उसने दोनों हाथ जोड़कर गद्गद वाणी में धीरे से कहा- ‘प्रभो ! यदि मैं मरूँ तो भूतल का स्पर्श होते ही फिर जी जाऊँ और आकाश में भी हे देव ! दो घड़ी तक मेरी मृत्यु न हो। दैत्य के इस प्रकार कहने पर भगवान हर ने दोनों वर दे दिये और पिंजरे में रखे हुए एक तोते को देखकर उस नतमस्तक दैत्य से कहा- 'निष्पाप दैत्य ! यह तोता तुम्हारे जीव के तुल्य है। तुम इसकी सदा रक्षा करना। असुर ! इसके मर जाने पर तुम्हें यह जानना चाहिये कि मेरी ही मृत्यु हो गयी है। उसे इस प्रकार वर देकर रुद्रदेव अन्तर्धान हो गये। इसलिये दुर्ग में तोते की मृत्यु हो जाने पर शकुनि का वध होगा। नारद जी कहते हैं- यह कहकर वीरों की उस सभा में भगवान देवकीनन्दन ने गरुड़ को शीघ्र बुलाकर हंसते हुए मुख से कहा। श्री भगवान बोले- परम बुद्धिमान गरुड़ ! मेरी बात सुनो, तुम चन्द्रावतीपुरी को जाओ। वह पुरी सौ योजन विस्तृत है और दैत्यों की सेना से घिरी हुई है। सुवर्ण और रत्नों से मनोहर प्रतीत होने वाली गगनचुम्बी महलों तथा विचित्र उपवनों एवं उद्यानों से सुशोभित है। बड़े-बड़े दैत्य उसकी शोभा बढ़ाते हैं। उसके प्रत्येक दुर्ग में और दरवाजों पर दैत्य पुंगव उसकी रक्षा करते हैं (उस पुरी में जाकर तुम शकुनि के महल के भीतर पिंजरे में सुरक्षित तोते को मार डालो)। नारदजी कहते हैं- राजन् ! उस पुरी को देखने के लिये गरुड़ ने सूक्ष्म रूप धारण कर लिया। वे दैत्यों से अलक्षित रहकर, अट्टालिकाओं तथा तोलिकाओं का निरीक्षण करते हुए, उड़-उड़कर एक महल से दूसरे महल में होते हुए शकुनि के भवन में जा पहुँचे। दैत्य के जीवस्वरूप शुक की खोज करते हुए गरुड़जी क्षण भर वहाँ खड़े रहे। उस समय दैत्यराज शकुनि वहाँ युद्ध के लिये कवच धारण किये भाँति-भाँति के अस्त्र-शस्त्र ले रहा था। उस वीर का हृदय क्रोध से भरा हुआ था। राजन् ! उसकी स्त्री मदालसा उसकी कमर में दोनों हाथ डालकर बोली। मदालसा ने कहा- राजन् ! प्राणनाथ ! तुम्हारे सारे सुहद, अनुकूल चलने वाले भाई तथा उद्भट दैत्यप्रवर युद्ध में मारे गये। यादवों के साथ युद्ध करने के लिये न जाओ; क्योंकि उनके पक्ष में साक्षात भगवान श्रीहरि आ गये हैं। उन्हें तत्काल भेंट अर्पित करो, जिससे कल्याण की प्राप्ति हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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