गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 5
अक्रूर को भगवान श्रीकृष्ण के परब्रह्मस्वरूप का साक्षात्कार तथा उनकी स्तुति, श्रीकृष्ण का ग्वालबालों के साथ पुरी-दर्शन के लिये जाना, नागरी, स्त्रियों का उनपर मोहित होना तथा भगवान के हाथ से एक रजक का उद्धार श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! अक्रूर और बलरामजी के साथ मथुरा के उपवन के पास पहुँचकर, यमुना के निकट रथ रोकर भगवान श्रीकृष्ण उतर गये और यमुना का जल पीकर पुन: रथ पर आ गये। तब उन दोनों भाईयों की आज्ञा ले अक्रूरजी यमुना में नहाने के लिये गये और नित्य–नैमित्तिक कर्म करने के लिये यमुना के निर्मल जल में उतरे। यमुनाजी का जल अगाध था, उसमें बड़ी-बड़ी भँवरे उठ रही थीं। अक्रूरजी ने देखा, उसी जल में बलराम और श्रीकृष्ण दोनों भाई खडे़-खडे़ परस्पर बातें कर रहे हैं। नरेश्वर ! यह देख अक्रूरजी चकित हो उठे और रथ पर जाकर देखा तो वहाँ भी वे दोनों बैठे दिखायी दिये। फिर जल में आकर देखा तो वहाँ भी उनके दर्शन हुए। बलरामजी नागराज शेष के रूप में कुंडली मारकर बैठे थे और उनकी गोद में लोकवन्दित परम प्रकाशमय गोलोक, गोवर्धन पर्वत, यमुना नदी, मनोहर वृन्दावन तथा असंख्य कोटि सूर्यों की ज्योतियों का प्रभावशाली मण्डल– ये क्रमश: परिलक्षित हुए। उसी ज्योतिर्मण्डल में रास मण्डल के भीतर कोटि-कोटि कामदेवों के सौन्दर्य-माधुर्य को तिरस्कृत करने वाले साक्षात् परिपूर्णतम पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण श्रीराधारानी के साथ वहाँ अक्रूर के दृष्टि पथ में आये। तब श्रीकृष्ण को परब्रह्म परमात्मा समझकर अक्रूर ने बारंबार उन्हें नमस्कार किया और दोनों हाथ जोड़कर अत्यन्त हर्ष के साथ उनकी स्तुति आरम्भ की। अक्रूर बोले- असंख्य ब्रह्माण्डों के अधीश्वर तथा गोलोक धाम के स्वामी परिपूर्णत भगवान श्रीकृष्णचन्द्र को नमस्कार है। प्रभो ! आप श्रीराधा के प्राणवल्लभ तथा व्रज के अधीश्वर हैं, आपको बारंबार नमस्कार है। श्रीनन्दनन्दन तथा माता यशोदा को आमोद प्रदान करने वाले श्रीहरि को नमस्कार है। देवकीपुत्र ! गोविन्द ! वासुदेव ! जगदीश्वर ! यदुकुलतिलक ! जगन्नाथ ! पुरुषोत्त्म ! आपको नमस्कार है। मेरी वाणी सदा आपके गुणों के वर्णन में लगी रहे। मेरे कान आपकी कथा सुनते रहें। मेरी भुजाएँ आपकी प्रसन्नता के लिये कर्म करने में तल्लीन रहें। मन सदा आपके चरणारविन्दों का चिन्तन करे तथा दोनों नेत्र आपके प्रकाशमान एवं भव्य धामविशेष के दर्शन में संलग्न हों[1]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नम: श्रीकृष्णचन्द्राय परिपूर्णतमाय च। असंख्याण्डाधिपतये गोलोकपतये नम: ।।
श्रीराधापतये तुभ्यं व्रजाधीशाय ते नम:। नम: श्रीनन्दपुत्राय यशोदानन्दनाय च ।।
देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते। यदूत्तम जगन्नाथ पाहि मां पुरुषोत्तम ।।
वाणी सदा ते गुणवर्णने स्यात् कणौ कथायां समदोश्च कर्मणि। मन: सदा त्वच्चरणारविन्दयोर्दृशौ स्फुरद्धामविशेषदर्शने ।।-(गर्ग0 मथुरा0 5। 9-12)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |