गर्ग संहिता
माधुर्य खण्ड : अध्याय 13
देवांगना स्वरूपा गोपियाँ श्रीनारदजी कहते हैं– मिथिलेश्वर ! अब देवांगनास्वरूपा गोपियों का वर्णन सुनो, जो मनुष्यों को चारों पदार्थ देने वाला तथा उनके भक्ति भाव को बढ़ाने वाला सर्वोत्तम साधन है। मालवदेश में एक गोप थे, जिनका नाम था- दिवस्पति नन्द। उनके एक सहस्त्र पत्नियाँ थीं। वे बडे़ धनवान और नीतिज्ञ थे। एक समय तीर्थ यात्रा के प्रसंग से उनका मथुरा में आगमन हुआ। वहाँ व्रजाधीश्वर नन्दराज का नाम सुनकर वे उनसे मिलने के लिये गोकुल गये। वहाँ नन्दराज से मिलकर और वृन्दावन की शोभा देखकर महामना दिवस्पति नन्द-राज की आज्ञा से वहीं रहने लगे। उन्होनें दो योजन भूमि को घेर कर गोओं के लिये गोष्ठ बनाया। राजन् ! उस व्रज में अपने कुटुम्बी बन्धुजनों के साथ रहते हुए दिवस्पति बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई। देवल मुनि के आदेश से समस्त देवांग्नाएँ उन्हीं दिवस्पति की महादिव्य कन्याएँ हुई, जो प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्विनी थीं। किसी समय श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण का दर्शन प्राकर वे सब कन्याएँ मोहित हो गयीं और उन दामोदर की प्राप्ति के लिये उन्होंने परम उत्तम माघ मास का व्रत किया। आधे सूर्य के उदित होते-होते प्रतिदिन व्रजांग्नाएँ यमुना में जाकर स्नान करतीं और प्रेमानन्द से विहृल हो उच्चस्वर से श्रीकृष्ण की लीलाएँ गाती थीं। भगवान श्रीकृष्ण उन पर प्रसन्न होकर बोले- 'तुम कोई वर माँगो।' तब उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर उन परमात्मा को प्रणाम करके उनसे धीरे-धीरे कहा। गोपियाँ बोलीं- प्रभो ! निश्चय ही आप योगीश्वरों के लिये भी दुर्लभ हैं। सबके ईश्वर तथा कारणों के भी कारण हैं। आप वंशीधारी हैं। आपका अंग मन्मथ के मन को भी मथ डालने वाला (मोह लेने वाला) है। आप सदा हमारे नेत्रों के समक्ष रहें। राजन् ! तब 'तथास्तु' कहकर जिन आदिदेव श्रीहरि ने गोपियों के लिये अपने दर्शन का द्वारा उन्मुक्त कर दिया, वे सदा तुम्हारे हृदय में नेत्रमार्ग में बसे रहें और बुलाये हुए-से तत्काल चित्त में आकर स्थित हो जायँ। जिन्होंने कमर में पीताम्बर बाँध रखा है, जिनके सिर पर मोरपंख मुकुट सुशोभित है और गर्दन झुकी हुई है, जिनके हाथ में बाँसुरी और लकुटी है तथा कानों में रत्नमय कुण्डल झलमला रहे हैं, उन पटुतर नटवेषधारी श्रीहरि का मैं भजन करता हूँ। आदिदेव श्रीहरि केवल भक्ति से ही वश में होते हैं। निश्चय ही इसमें गोपियाँ सदा प्रमाणभूति हैं, जिन्होंने न तो कभी सांख्य का विचार किया न योग का अनुष्ठान, केवल प्रेम से ही वे भगवान के स्वरूप को प्राप्त हो गयीं। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में माधुर्य खण्ड के अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व संवाद में ‘देवांगना स्वरूपा गोपियों का उपाख्यान’ नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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