गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 11
भगवान वसुदेव देवकी में आवेश; देवताओं द्वारा उनका स्तवन; आविर्भावकाल; अवतार विग्रह की झाँकी; वसुदेव देवकी कृत भगवत-स्तवन; भगवान द्वारा उनके पूर्वजन्म के वृतांत वर्णन पूर्वक अपने को नन्द भवन में पहुँचाने का आदेश; कंस द्वारा नन्द कन्या योगमाया से कृष्ण के प्राकट्य की बात जानकर पश्चात्ताप पूर्वक वसुदेव देवकी को बन्धन मुक्त करना, क्षमा माँगना और दैत्यों को बाल वध का आदेश देना। श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! तदंतर परात्पर एवं परिपूर्णतम साक्षात भगवान श्रीकृष्ण पहले वसुदेवजी के मन में आविष्ट हुए। भगवान का आवेश होते ही महामना वसुदेव सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि के समान महान तेज से उदभासित हो उठे, मानो उनके रूप में दूसरे यज्ञनारायण ही प्रकट हो गये हों। फिर सबको अभय देने वाले श्रीकृष्ण देवी देवकी के गर्भ में आविष्ट हुए। इससे उस कारागृह में देवकी उसी तरह दिव्य दीप्ति से दमक उठीं, जैसे घनमाला में चपला चमक उठती है। देवकी के उस तेजस्वी रूप को देखकर कंस मन ही मन भय से व्याकुल होकर बोला- ‘यह मेरा प्राणहंता आ गया; क्योंकि इसके पहले यह ऐसी तेजस्वनी नहीं थी। इस शिशु को जन्म लेते ही मैं अवश्य मार डालूँगा।’ यों कहकर वह भय से विह्वल हो उस बालक के जन्म की प्रतिक्षा करने लगा। भय के कारण अपने पूर्व शत्रु भगवान विष्णु का चिंतन करते हुए वह सर्वत्र उन्हीं को देखने लगा। अहो ! दृढ़ता पूर्वक वैर बँध जाने से भगवान श्रीकृष्ण का भी प्रत्यक्ष की भाँति दर्शन होने लगता है। इसलिये असुर श्रीकृष्ण की प्राप्ति के उद्देश्य से ही उनके साथ वैर करते हैं। जब भगवान गर्भ में आविष्ट हुए, तब ब्रह्मादि देवता तथा अस्मदादि (नारद प्रभृति) मुनीश्वर वसुदेव के गृह के ऊपर आकाश में स्थित हो, भगवान को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे। देवता बोले- जाग्रत, स्वप्न आदि अवस्थाओं में प्रतीत होने वाले विश्व के जो एकमात्र हेतु होते हुए भी अहेतु हैं, जिनके गुणों का आश्रय लेकर ही ये प्राणि समुदाय सब ओर विचरते हैं तथा जैसे अग्नि से निकलकर सब ओर फैले हुए विस्फुलिंग (चिनगारियाँ) पुन: उसमें प्रवेश नहीं करते, उसी प्रकार महत्तत्त्व, इन्द्रिय वर्ग तथा उनके अधिष्ठता देव समुदाय जिनसे प्रकट हो पुन: उनमें प्रवेश नहीं पाते, उन परमात्मा आप भगवान श्रीकृष्ण को हमारा सादर नमस्कार है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |