गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 23
अनिरुद्ध के पूछने पर सान्दीपनि द्वारा श्री कृष्ण–तत्त्व का निरूपण, श्रीकृष्ण की परब्रह्मता एवं भजनीयता का प्रतिपादन करके जगत से वैराग्य और भगवान के भजन का उपदेश श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन ! तत्पश्चात् वहाँ श्रीकृष्ण पौत्र अनिरुद्ध ने मन में कुछ संदेह लेकर सान्दीपनि मुनि से उसी प्रकार प्रश्न किया, जैसे देवराज इंद्र देवगुरु बृहस्पति से अपने मन का संदेह पूछा करते थे। अनिरुद्ध बोले- भगवन् ! मुने ! मुझे उस सारतत्त्व का उपदेश दीजिए, जिससे मैं जगत के स्वप्नतुल्य सुखों को त्याग कर नित्यानंद स्वरूप में रमण करूँ। राजन् ! अनिरुद्ध के इस प्रकार पूछने पर सान्दीपनि मुनि हंसते हुए उसी प्रकार उन्हें उपदेश देने लगे, जैसे पूर्वकाल में राजा पृथु के पूछने पर सनत्कुमार ने उन्हें प्रसन्नतापूर्वक उपदेश दिया था। सान्दीपनि बोले– लोकेश ! तुम्हीं श्रीहरि के नाभि कमल से उत्पन्न हुए आदिदेव हो, अत: तुम्हारे सामने मैं सार तत्त्व की बात क्या कह सकूँगा। राजन् ! तथापि तुम्हारे वचन का गौरव मान कर समस्त दीन चेता मनुष्यों के कल्याण के लिए कुछ कहूँगा। नरेश्वर ! तुमने जो कुछ पूछा है, वह सब मेरे मुख से सुनो। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के चरणों का सेवन ही सारतत्त्व है, जिन चरणों के पूजन मात्र से ध्रुवजी ने ध्रुव पद प्राप्त कर लिया। प्रह्लाद, अम्बरीष गय और यदु ने भी अक्षय पद प्राप्त किया। राजेंद्र ! इसलिए तुम भी मन से यत्नपूर्वक श्रीकृष्ण की सेवा करो, क्योंकि यही सब साधनों का सार भूत है। तुम सब लोग इस जगत में बड़े सौभाग्यशाली हो, क्योंकि श्रीकृष्ण के वंश में उत्पन्न हुए हो, उनके कुटुम्बी और संबंधी हो। श्रीहरि के प्रिय होने के कारण तुम सब के सब जीवन्मुक्त हो। तुम यादवों में कोई तो श्रीकृष्ण को अपना बेटा समझते हैं, कोई भाई मानते हैं और कोई उन्हें पिता एवं मित्र के रूप में जानते हैं। यदि उनका यह भाव सुदृढ़ रहा तो उनके लिए इससे बढ़कर उत्तम कर्तव्य और क्या होगा। अनिरुद्ध ने पूछा- मुने ! इस जगत का आदिभूत सनातन कर्ता कौन है, जिससे पूर्वकाल में इसका प्राकट्य हुआ था, इस बात का मुझसे विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। महर्षे ! भगवान जगदीश्वर प्रत्येक युग में किस–किस रूप में धर्म का अनुष्ठान करते हैं, यह हम सब लोगों को बताइये। सान्दीपनि बोले– युदुकुल तिलक अनिरुद्ध ! जिनसे जगत की उत्पत्ति और संहार होते रहते हैं, वह ईश्वर, परब्रह्मा एवं भगवान एक ही हैं। नृपश्रेष्ठ ! युग–युग में (प्रत्येक कल्प में) ये दक्ष आदि प्रजापति उन्हीं से प्रकट होते हैं और फिर उन्हीं में लीन हो जाते हैं। विद्वान पुरुष इस विषय में कभी मोहित नहीं होता। राजन् ! श्रीकृष्ण साक्षात परब्रह्मा हैं। जिनसे यह सारा जगत प्रकट हुआ है, जो स्वयं हा जगत्स्वरूप हैं तथा जिनमें ही इस जगत का लय होगा। वह ब्रह्मा परमधाम है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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