गर्ग संहिता
गिरिराजखण्ड : अध्याय 10
गोवर्धन-शिला के स्पर्श से एक राक्षस का उद्धार तथा दिव्यरूपधारी उस सिद्ध मुख से गोवर्धन की महिमा का वर्णन श्रीनारदजी कहते हैं– राजन ! इस विषय में एक पुराने इतिहास का वर्णन किया जाता है, जिसके श्रवण-मात्र से बड़े-बड़े पापों का विनाश हो जाता है। गौतमी गंगा (गोदावरी) के तट पर विजय नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण रहता था। वह अपना ऋण वसूल करने के पापनाशिनी मथुरापुरी में आया। अपना कार्य पूरा करके जब वह घर को लौटने लगा, तब गोवर्धन के तट पर गया। मिथिलेश्वर ! वहाँ उसने एक गोल पत्थर ले लिया। धीरे-धीरे वन प्रान्त में होता हुआ जब वह व्रजमण्डल से बाहर निकल गया, तब उसे अपने सामने से आता हुआ एक घोर राक्षस दिखायी दिया। उसका मूँह उसकी छाती में था। उसके तीन पैर और छ: भुजाएँ थीं, परंतु हाथ तीन ही थे ओठ बहुत ही मोटे और नाक एक हाथ उँची थी। उसकी सात हाथ लंबी जीभ लपलपा रही थी, रोएँ काँटो के समान थे, आँखे बड़ी-बड़ी और लाल थीं, दाँत टेढ़े-मेढ़े और भयंकर थे। राजन ! वह राक्षस बहुत भूखा था, अत: 'घुर-घुर' शब्द करता हुआ वहाँ खड़े हुए ब्राह्मण के सामने आया। ब्राह्मण ने गिरिराज के पत्थर से उस राक्षस को मारा। गिरिराज शिला का स्पर्श होते ही वह राक्षस-शरीर छोड़कर श्यामसुन्दर रूपधारी हो गया। उसके विशाल नेत्र प्रफुल्ल कमल पत्र के समान शोभा पाने लगे। वनमाला, पीताम्बर, मुकुट और कुण्डलों से उसकी बड़ी शोभा होने लगी। हाथ में वंशी और बेंत लिये वह दूसरे कामदेव समान प्रतीत होने लगा। इस प्रकार दिव्यरूपधारी होकर उसने दोनों हाथ जोड़कर ब्राह्मण देवता को बारंबार प्रणाम किया। सिद्ध बोला- ब्राह्मण श्रेष्ठ ! तुम धन्य हो, क्योंकि दूसरों को संकट से बचाने के पुण्य कार्य में लगे हुए हो। महामते ! आज तुमने मुझे राक्षस की योनि से छुटकारा दिला दिया। इस पाषाण के स्पर्श मात्र से मेरा कल्याण हो गया। तुम्हारे सिवा दूसरा कोई मेरा उद्धार करने में समर्थ नहीं था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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