गर्ग संहिता
द्वारका खण्ड : अध्याय 22
सुदामा ब्राह्मण का उपाख्यान श्रीनारदजी कहते हैं- सुदामा नामक श्रीकृष्ण के एक ब्राह्मण सखा थे। वे अपनी पत्नी सत्या के साथ अपने नगर में रहने थे। सुदामा वेद-वेदांग के पारंगत थे, परंतु धनहीन थे और थे वैराग्यवान। वे अपनी अनकूल पत्नी के साथ अयाचित वृति के द्वारा जीवन-निर्वाह करते। सुदामा ने एक दिन दरिद्रता से उत्पीड़ित दु:खिनी अपनी पत्नी से कहा- ‘पतिव्रते ! द्वारकाधीश श्रीकृष्ण मेरे मित्र हैं, सांदीपनि गुरु के घर में मैंने उनके साथ विद्याध्ययन किया है; परंतु श्रीकृष्ण के भोज, वृष्णि और अन्धकों के अधीश्वर होने के बाद मेरा उनसे मिलना नहीं हुआ। वे त्रिलोकी के नाथ भगवान दु:खहारी और दीनवत्सल है। पति के वचन सुनकर पतिव्रता सत्या ने, जिसका कण्ठ सूख रहा था, जो फटे-पुराने कपडे़ पहने हुए थी, भूख से अत्यन्त पीड़ित थी, पतिदेव से कहा- ‘ब्रह्मान’ जब साक्षात श्रीहरि आपके सखा हैं, तब हम लोग फटे चिथडे़ पहने और भूखे क्यों रहें ? लोग द्वारका जाकर साक्षात कमलापति के दर्शन करते हैं और धनवान होकर घर लौटते; अतएव आप भी वहाँ जाइये। सुदामा ने कहा- मैं सबको सिखाया करता हूँ आज तुम मुझको सिखा रही हो ? प्रिये ! तुम एक विद्वान ब्राह्मण को मांगकर धन प्राप्त करने का उपदेश दे रही ? सत्या ने कहा- आपके सखा साक्षात लक्ष्मीपति हैं और यहाँ से बहुत दूर भी नहीं है; अतएव आप उनके पास जाइये। वे आपके दु:ख-दारिद्रय का नाश कर देंगे दु:ख भोगते-भोगते हमारी उम्र बीत चली। स्वामिन ! ऐसे कृपानिधि दाता की मित्रता का क्या यही फल हैं ? सुदामा ने कहा- विधाता ने जो भाग्य में लिख दिया है, वह होगा ही। भद्रे ! जाने-आने से क्या होता है ? घर में रहकर श्रीहरि का ध्यान करना ठीक है। जिनके दरवाजे में राजा, देवता, गन्धर्व और किन्नर भी बिना आज्ञा के प्रवेश नहीं कर सकते, वहाँ मुझ- सरीखे दीन को कौन पूछेगा ? सत्या बोली- यह सत्य है कि उनकी आज्ञा के बिना देवता, गन्धर्व और किंनर अंदर नहीं जा सकते; परंतु साक्षात हरि तो अन्तर्यामी हैं, वे अपना दूत भेजकर आपको अंदर बुला लेंगे। ब्राह्मण ने कहा- भामिनि ! मेरी बात सुनो। श्रीकृष्ण अवश्य ही ऐसे दयालु हैं, परंतु विपत्ति के समय धनवान मित्र के घर जान उचित नहीं है। विशेषत: बहुत दिनों के बाद उन अन्तरंग प्रेमास्पद को देखकर मैं उनसे क्या याचना करुँगा ? लोभ से रहित होने पर प्रेम हुआ करता है, मांगने पर प्रेम नही रहा करता।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ विपत्तिकाले मित्रस्य न गच्छेद् गृहमुत्तमम्।
कथं नु याचनां कुर्वे चिराद् दृष्टा स्वकं प्रियम्। निर्लोभात्तु भवेत् प्रीतिर्याचुनात्तु गमिष्यति।।-(गर्ग0 द्वारका0 22। 14-15)
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