गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 22
गोपांगनाओं श्रीकृष्ण का स्तवन; भगवान का उनके बीच में प्रकट होना; उनके पूछने पर हंसमुनि के उद्धार की कथा सुनाना तथा गोपियों को क्षीरसागर श्वेतद्वीप के नारायण स्वरूपों का दर्शन कराना श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! तदनंतर श्रीकृष्ण के शुभागमन के लिये समस्त व्रजांगनाएँ मिलकर सुरम्य तालस्वर के साथ उन श्रीहरि के रमणीय गुणों का गान करने लगीं । गोपियाँ बोलीं- लोकसुन्दर ! जनभूषण ! विश्वदीप ! मदनमोहन ! तथा जगत की पापराशि एवं पीड़ा हर लेने वाले ! आनन्दकन्द यदुनन्दन ! नन्दनन्दन ! तुम्हारे चरणाविन्दों का मकरन्द भी परम स्वच्छन्द है, तुम्हें बारंबार नमस्कार है। गौओं, ब्राह्मणों और साधु-संतों के विजयध्वजरूप ! देववन्ध्य तथा कंसादि दैत्यों के वध के लिये अवतार धारण करने वाले ! श्रीनन्दराज कुल कमल दिवाकर ! देवाधिदेवों के भी आदिकारण ! मुक्तजनदर्पण ! तुम्हारी जय हो। गोपवंशरूपी सागर में परम उज्ज्वल मोती के समान रूप धारण करने वाले ! गोपालकुलरूपी गिरिराज के नीलरत्न ! परमात्मन ! गोपालमण्डलरूपी सरोवर के प्रफुल्ल कमल ! तथा गोपवृन्दरूपी चन्दन वन के प्रधान कलहंस ! तुम्हारी जय हो। प्यारे श्यामसुन्दर ! तुम श्रीराधिका के मुखारविन्द का मकरन्द पान करने वाले मधुप हो; श्रीराधा के मुखचन्द्र की सुधामयी चन्द्रिका के आस्वादक चकोर हो; श्रीराधा के वक्ष:स्थल पर विद्योतमान चन्द्रहार हो तथा श्रीराधिका रूपिणी माधवीलता के लिये कुसुमाकर (ऋतुराज वसंत) हो। जो रास-रंगस्थली में अपने वैभव (लीला-शक्ति) से भूरि-भूरि लीलाएँ प्रकट करते हैं, जो गोपांगनाओं के नेत्रों और जीवन के मूलाधार एवं हार स्वरूप हैं तथा श्रीराधा के मान करने पर जिन्होंने स्वयं मान कर लिया है, वे श्यामसुन्दर श्रीहरि हमारे नेत्रों के समक्ष प्रकट हों। जिन्होंने गोपिकाओं के समस्त यूथों को, श्रीवृन्दावन की भूमिको तथा गिरिराज गोवर्धन जो अपनी चरण-धूलि से अलंकृत किया है; जो सम्पूर्ण जगत के उद्भव तथा पालन के लिये भूतल पर प्रकट हुए हैं; जिनकी कांति अय्तंत श्याम है और भुजाएँ नागराज के शरीर के भाँति सुशोभित होती हैं, उन नन्दनन्दन माधव की हम आराधना करती हैं। प्राणनाथ ! तुम्हारे बिना वियोग-व्यथा से पीड़ित हुई हम सब गोपियों को चन्द्रमा सूर्य की किरणों के समान दाहक प्रतीत होता है। यह सम्पूर्ण वनांत-भाग जो पहले प्रसन्नता का केन्द्र था, अब इसमें आने पर ऐसा जान पड़ता है, मानो हम लोग असिपत्रवन में प्रविष्ट हो गयी हैं और अत्यंत मन्द-मन्द गति से प्रवाहित होने वाली वायु हमें बाण-सी लगती है। हरे ! राजा सौदास की रानी मदयंती को अपने पति के विरह से जो दु:ख हुआ था, उससे हजार गुना दु:ख नल की महारानी दमयंती को पति-वियोग के कारण प्राप्त हुआ था। उनसे भी कोटि गुना अधिक दु:ख पतिविरहणी जनक नन्दिनी सीता को हुआ था और उनसे भी अनंत गुना अधिक दु:ख आज हम सबको हो रहा है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गोप्य ऊचु:-
लोकाभिराम जनभूषण विश्वदीप कंदर्पमोहन जगद्वृजिनार्तिहारिन्। आनन्दकंद यदुनन्दन नन्दसूनो स्वच्छन्दपद्ममकरन्द नमो नमस्ते ।।
गोविन्दप्रसाधुविजयध्वज देववन्द्य कंसादिदैत्यवधहेतुकृतावतार। श्रीनन्दराजकुलपद्मदिनेश देव देवादिमुक्तजनदर्पण ते जयोऽस्तु ।।
गोपालसिन्धुपरमौक्तिकरूपधारिन् गोपालवंशगिरिनीमणे परात्मन्। गोपालमण्डलसरोवरकंजमूर्ते गोपालचन्दनवने कलहंसमुख्य ।।
श्रीराधिकावदनपङ्कजषट्पदस्त्वं श्रीराधिकावदनचन्द्रचकोररूप:। श्रीराधिकाहृदयसुन्दरचन्द्रहार: श्रीराधिकामधुलताकुसुमाकरोऽसि ।।
यो रासरंगनिजवैभवभूरिलीलो यो गोपिकानयनजीवनमूलहार:। मानं चकार रहसा किल मानवत्यां सोअयं हरिर्भवतु नो नयनाग्रयामी ।।
यो गोपिकासकलयूथमलंचकार वृन्दावनं च निजपादरजोभिरद्रिम्। य: सर्वलोकविभवाय बभूव भूमौ तं भूरिनीलमुरगेन्द्र भुजं भजाम: ।।
चन्द्रं प्रतप्तकिरणज्वलनं प्रसन्नं सर्वे वनान्तमसिपत्रवनप्रवेशम्। बाणं प्रभञ्जनमतीवसुमन्दयानं मन्यामहे किल भवन्तमृते व्यथार्ता: ।।
सौदासराजमहिषीविरहादतीव जातं सहस्त्रगुणितं नलपट्टराज्ञया:। तस्मात्तु कोटिगुणितं जनकात्मजायास्तस्मादनन्तमतिदु: खमलं हरे न: ।।
(गर्ग0 वृन्दावन0 22। 2-9)
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