गर्ग संहिता
माधुर्य खण्ड : अध्याय 4
कोसल प्रान्तीय स्त्रियों का व्रज में गोपी होकर श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भाव से प्रेम करना श्रीनारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! अब कोसल प्रदेश की गोपिकाओं का वर्णन सुनो। यह श्रीकृष्ण चरितामृत समस्त पापों का नाश करने वाला तथा पुण्य जनक है। कोसलप्रान्त की स्त्रियाँ श्रीराम के वर से व्रज में नौ उपनन्दों के घरों में उत्पन्न हुई और व्रज के गोपजनों के साथ उनका विवाह हो गया। वे सब की सब रत्नमय आभूषणों विभूषित थीं। उनकी अंग कान्ति पूर्ण चन्द्रमा की चाँदनी के समान थी। वे नूतन यौवन से सम्पन्न थी। उनकी चाल हंस के समान थी और नेत्र प्रफुल्ल कमलदल के समान विशाल थे। वे पद्यिनी जाति की नारियाँ थीं। उन्होनें कमनीय महात्मा नन्द-नन्दन श्रीकृष्ण के प्रति जारधर्म के अनुसार उत्तम, सुदृढ़ तथा सबसे अधिक स्नेह किया। व्रज की गलियों में माधव मुस्कराकर पीताम्बर छीनकर और आँचल खींचकर उनके साथ सदा हास परिहास किया करते थे। वे गोपबालाएँ जब दही बेचने के लिये निकलतीं तो 'दही लो, दही लो'- यह कहना भूलकर 'कृष्ण लो, कृष्ण लो' कहने लगती थीं। श्रीकृष्ण के प्रति प्रेमासक्त, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, नक्षत्र-मण्डल, सम्पूर्ण दिशा, वृक्ष तथा जनसमुदायों में भी उन्हें केवल कृष्ण ही दिखायी देते थे। प्रेम के समस्त लक्षण उनमें प्रकट थे। श्रीकृष्ण ने उनके मन हर लिये थे। वे सारी व्रजांगनाएं आठों सात्त्विक भावों से सम्पन्न थी[1]। प्रेम ने उन सबको परमहंसों (ब्रह्मनिष्ठ महात्माओं) की अवस्था को पहुँचा दिया था। नरेश्वर ! वे कान्तिमती गोपांग्नाएँ श्रीकृष्ण के आनन्द में ही मग्र हो वज्र की गलियों विचरा करती थीं। उनमें जड़-चेतन का भान नहीं रह गया था। वे जड़, उन्मत और पिशाचों की भाँति कभी मौन रहतीं और कभी बहुत बोलने लगती थीं। वे लाज और चिन्ता को तिलांजली दे चुकी थीं। इस प्रकार कृतार्थ होकर जो श्रीकृष्ण में तन्मय हो रही थीं, वे गोपांगनाएं बलपूर्वक खींचकर श्रीकृष्ण के मुखरविन्द को चूम लेती थीं। राजन ! उनके तप का मैं क्या वर्णन करूँ ? जो सारे लोक व्यवहार एवं मर्यादा मार्ग को तिलांजली देकर हृदय तथा इन्द्रिय आदि के द्वारा पूर्ण परब्रह्म वासुदेव में अविचल प्रेम करती थी, जो रास-क्रीड़ा में श्रीकृष्ण के कंधों पर अपनी बाँहें रखकर, प्रेम से विगलितचित हो श्रीकृष्ण को पूर्णतया अपने वश में कर चुकी थी, उनकी तपस्या का अपने सहस्त्रमुखों वर्णन करने में नागराज शेष भी समर्थ नहीं हैं। विदेहराज ! न्याय वैशेषिक आदि दर्शनों के तत्वज्ञों में श्रेष्ठतम महात्मा योग-सांख्य और शुभ-कर्म द्वारा जिस पद को प्राप्त करते हैं, वही पद केवल भक्ति-भाव से उपलब्ध हो जाता है। आदि देव श्रीहरि केवल भक्ति से ही वश में होते हैं, निश्चय ही इस विषय में सदा गोपियाँ ही प्रमाण हैं। उन्होंने कभी सांख्य और योग का अनुष्ठान नहीं किया, तथापि केवल प्रेम से ही वे भगवत्स्वरूपता को प्राप्त हो गयीं। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में माधुर्य खण्ड के अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व संवाद में ‘कोसल प्रान्तीय गोपिकाओं का आख्यान’ नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आठ सात्त्विक भावों के नाम इस प्रकार हैं - स्तम्भ: स्वेदोऽथ रोमांच: स्वरभंगोरथ वेपथु:। वैवर्ण्यमश्रु प्रलय इत्यष्टौ सात्त्विका मता:।। 'अंगों का अकड़ जाना, पसीना होना, रोमांच हो आना, बोलते समय आवाज का बदल जाना, शरीर में कम्पन होना, मुँह का रंग उड़ जाना, नैत्रों से आँसू बहना तथा मरणान्तिक अवस्था तक पहुँच जाना - ये आठ प्रेम के सात्त्विक भाव माने गये हैं।'
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