गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 7
ब्रह्माजी के द्वारा गौओं, गोवत्सों एवं गोप-बालकों का हरण श्री नारद जी कहते हैं- राजेन्द्र ! अब भगवान श्रीकृष्ण की अन्य लीला सुनिये। यह लीला उनके बाल्यकाल की है, तथापि उनके पौगण्डावस्था की प्राप्ति के बाद प्रकाशित हुई। श्रीकृष्ण गोवत्स एवं गोप-बालकों की मृत्यु के समान (भयंकर) अघासुर के मुख से रक्षा करने के उपरांत उनका आनन्द बढ़ाने की इच्छा से यमुना तट पर जाकर बोले- ‘प्रिय सखाओ ! अहा, यह कोमल वालुकामय तट बहुत ही सुन्दर है ! शरद ऋतु में खिले हुए कमलों के पराग से पूर्ण है। शीतल, मन्द एवं सुगन्धित-त्रिविध वायु से सौरभित है। यह तट भूमि भौंरो की गुंजार से युक्त एवं कुंज और वृक्ष लताओं से सुशोभित है। गोप बालको ! दिन का एक पहर बीता गया है। भोजन का समय भी हो गया है। अतएव इस स्थान पर बैठकर भोजन कर लो। कोमल वालुका वाली यह भूमि भोजन करने के उपयुक्त दीख रही है। बछड़े भी यहाँ जल पीकर हरी-हरी घास चरते रहेंगे।’ गोप बालकों ने श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर कहा-‘ऐसा ही हो’ और वे सब के सब भोजन करने के लिये यमुना तट पर बैठ गये। इसके उपरांत जिनके पास भोजन-सामग्री नहीं थी, उन बालकों ने श्रीकृष्ण के कान में दीन-वाणी से कहा- ‘हम लोगों के पास भोजन के लिये कुछ नहीं है, हम लोग क्या करें ? नन्द गाँव यहाँ से बहुत दूर है, अत: हम लोग बछड़ों को लेकर चले जाते हैं।’ यह सुनकर श्रीकृष्ण बोले- ‘प्रिय सखाओ ! शोक मत करो। मैं सबको यत्न पूर्वक (आग्रह के साथ) भोजन कराऊँगा। इसलिये तुम सब मेरी बात पर भरोसा करके निश्चिन्त जो जाओ।’ श्रीकृष्ण की यह उक्ति सुनकर वे लोग उनके निकट ही बैठ गये। अन्य बालक (अपने-अपने) छीकों को खोलकर श्रीकृष्ण के साथ भोजन करने लगे । श्रीकृष्ण ने गोप-बालकों के साथ, जिनकी उनके सामने भीड़ लगी हुई थी, एक राज सभा का आयोजन किया। समस्त गोप-बालक उनको घेर कर बैठ गये। ये लोग अनेक रंगों के वस्त्र पहने हुए थे और श्रीकृष्ण पीला वस्त्र धारण करके उनके बीच में बैठ गये। विदेह ! उस समय गोप-बालकों से घिरे हुए श्रीकृष्ण की शोभा देवताओं से घिरे हुए देवराज इन्द्र के समान अथवा पँखुड़ियों से घिरी हुई स्वर्णिम कमल की कर्णिका (केसर युक्त भीतरी भाग) के समान हो रही थी। कोई बालक कुसुमों, कोई अंकुरों, कोई पल्लवों, कोई पत्तों, कोई फलों, कोई अपने हाथों, कोई पत्थरों और कोई छीकों को ही पात्र बनाकर भोजन करने लगे। उनमें से एक बालक ने शीघ्रता से कौर उठाकर श्रीकृष्ण के मुख में दे दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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