गर्ग संहिता
श्रीविज्ञान खण्ड : अध्याय 2
व्यास जी के द्वारा गतियों का निरूपण राजा उग्रसेन बोले- आपके द्वारा किये गये वर्णन को सुनकर मैं कृतकृत्य हो गया तथा आनन्द से भर गया हूँ। आपने मेरे ऊपर बड़ी कृपा की। मेरे मन में उठे हुए संदेह को दूर करने में आप ही समर्थ हैं। ब्रह्मन् ! सकाम कर्मों की क्या गति होती है, उनका क्या लक्षण है और उनके कितने भेद हैं इसे तत्वत: कहने की कृपा कीजिये। व्यासजी कहा- राजन् ! गुणों के साथ सम्बन्ध से सभी कर्म सकाम हो जाते हैं, वे ही फल का त्याग कर देने पर निष्काम हो जाते हैं। यदुराज ! जो सकाम कर्म है, उसे बन्धन समझो। जो निष्काम कर्म होता है, वह मोक्ष देने वाला है। अतएव वह परम मंगलमय होता है। सत्व, रज और तम- इन तीन गुणों की उत्पत्ति प्रकृति से होती है। जैसे भगवान विष्णु से सारे पदार्थ व्याप्त हैं, उसी प्रकार गुणों से सम्पूर्ण विश्व ओतप्रोत है। सत्त्वगुण की स्थिति में जिनके प्राण निकलते हैं, वे स्वर्गलोक में जाते हैं, रजोगुण में प्रयाण करने वाले नरलोक के अधिकारी होते हैं तथा तमोगुण की अधिकता में मरने वाले को नरक की यातना भोगनी पड़ती है। जो गुणों के सम्बन्ध से रहित होते हैं, वे श्री कृष्ण को प्राप्त होते हैं। राजन् ! जिन्होंने वनवासी होकर पंचाग्नियों का सेवन रूप तप किया है, वे निष्पाप होकर सप्तर्षियों के लोक में चले जाते हैं। जो संन्यास-आश्रम के नियमों का पालन करने वाले त्रिदण्धारी हैं तथा जिन्होंने इन्द्रिय एवं मन के स्वभाव विजय पा ली है, वे सत्यलोक के यात्री होते हैं। जो निर्मल चित्तवाली ऊर्ध्वरेता योगिराज अष्टांगयोग का सेवन करते हैं, वे उसके प्रभाव से जनलोक अथवा महर्लोक में जाते हैं- इसमें कुछ भी संदेह नहीं हैं- वे उसके प्रभाव से जनलोक अथवा महर्लोक में जाते हैं- इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। यज्ञ का अनुष्ठान करने वाला पुरुष बहुत वर्षों तक इन्द्रलोक में वास पाता है। दानशील व्यक्ति चन्द्रलोक को और व्रतशील पुरुष सूर्यलोक को जाता है। तीर्थों की यात्रा करने वाले अग्निलोक को, सत्यप्रतिज्ञ वरुणलोक को, विष्णु के उपासक वैकुण्ठलोक को तथा शिव की आराधना करने वाले शिवलोक को प्रयाण करते हैं। जो सुख, ऐश्वर्य और संतान की कामना से नित्य पितरों का पूजन करते हैं, वे दक्षिण मार्ग से अर्यमा के साथ पितृलोक को चले जाते हैं। इस प्रकार पांच देवों की उपासना करने वाले स्मार्त लोग स्वर्गलोक के अधिकारी होते हैं, प्रजापतियों के उपासक दक्ष आदि प्रजापतियों के लोक को जाते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतलोक को और यक्षों को पूजने वाले यक्षलोक में प्रयाण करते हैं। राजन् ! जो जिसके भक्त होते हैं, वे उसी के लोक में जाते हैं- इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। राजन् ! वैसे ही बुरे संग के वशीभूत होकर पाप में रचे पचे रहने वाले लोग यमलोक में जाते हैं। जो दारुण नर कों से घिरा हुआ है। महामते ! ब्रह्मलोक पर्यन्त जितने भी लोक हैं, उनमें जाने पर पुनरागमन होता है। राजन् ! इससे तुम समझ लो कि सम्पूर्ण लोक पुनरावर्ती हैं। सकाम-कर्मियों की यही गमनागमन रूप गति होती है। जब तक जीव के पुण्य समाप्त नहीं होते, तब तक वह स्वर्गलोक में विहार करता है। पुण्य के शेष हो जाने पर उसे न चाहने पर भी काल की प्रेरणा से नीचे गिरना पड़ता है। अत: हे महाबाहु यादवेन्द्र ! कर्म में फल का त्याग कर देना चाहिये। मनुष्यों को चाहिये कि वह ज्ञान और वैराग्य से युक्त होकर निष्काम भक्त हो जाय। फिर प्रेमलक्षणा भक्ति के द्वारा भगवान श्रीहरि के भक्तजनों का प्रीतिपात्र बनकर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के चरण-कमलों की, जो अभय प्रदान करने वाले हैं और जो परमहंसों द्वारा सेवित हैं, उपासना करनी चाहिये। जो हठपूर्वक समस्त लोकों का संहार करने वाली है, वह मृत्यु भी उस भगवद्धाम में पहुँच जाने पर शान्त हो जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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