गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 62
गुरु और गंगा की महिमा; श्रीवज्रनाभ द्वारा कृतज्ञता-प्रकाशन और गुरुदेव का पूजन तथा श्रीकृष्ण के भजन-चिन्तन एवं गर्ग संहिता का माहात्म्य श्री गर्गजी कहते हैं- राजन् ! जिसने पूर्वजन्म में अक्षय तप किया है, इस लोक में उसी की गुरु के प्रति भक्ति होती है। जो समर्थ होकर भी गुरु की सेवा नहीं करता, अपने गुरु को नहीं मानता, वह सदा ‘कुम्भीपाक’ नरक में गिरता है। जो गुरु के प्रति भक्ति न रखने वाले पुरुष को अपने सामने आया हुआ देख लेता है, उसे गोहत्या का पाप लगता है। वह गंगा और यमुना में स्नान करके उस पाप से शुद्ध होता है। शिष्य को जहाँ-जहाँ जितना द्रव्य उपलब्ध होता है, उसका दशांश भाग गुरु का समझना चाहिये। हमारे घर के द्रव्य में भी इसी तरह दशांश भाग गुरु का है। जो शिष्य बलपूर्वक उसे भोगता है, गुरु को अलग से निकालकर नहीं देता है, वह –‘महारौर’ नरक में जाता है और सब सुखों से वंचित हो जाता है। राजन् ! जो नित्य श्रीहरि में नवधा भक्ति करते हैं, वे अनायास ही संसार-सागर को पार कर जाते हैं। ज्ञाति (कुटुम्बीजन), विद्या, महत्व, रूप और यौवन- इसका यत्नपूर्वक परित्याग करे; क्योंकि ये पाँच भक्ति मार्ग के कण्टक हैं। राजेन्द्र ! जो भक्ति भाव से भगवान श्रीकृष्ण का प्रसाद और चरणोदक लेते हैं, वे इस पृथ्वी को पावन करने वाले होते हैं, इसमें संशय नहीं है। गंगा पाप का, चनद्रमा ताप का और कल्पवृक्ष दीनता के अभिशाप का अपहरण करता है, परंतु सत्संग पाप, ताप और दैन्य- तीनों का तत्काल नाश कर देता है। मनुष्यों पितृगण पिण्ड पाने की इच्छा से तभी तक संसार में चक्कर लगाते हैं, जब तक कि उनके कुल में कृष्ण भक्त पुत्र जन्म नहीं लेता। वह कैसा गुरु, कैसा पिता, कैसा बेटा, कैसा मित्र, कैसा राजा और कैसा बन्धु है, जो श्रीहरि में मन नहीं लगा देता ? जो विद्या, धन, गृह तथा कुल का अभिमान रखने वाले हैं तथा रूप आदि विषय एवं स्त्री-पुत्रों में नित्य बुद्धि रखते है और जो फल की कामना से अन्य देवताओं की ओर देखते रहते हैं, भगवान केशव का भजन नहीं करते हैं, वे जीते-जी मरे हुए के समान हैं[1]। नृपश्रेष्ठ ! यह मैंने तुम्हारे सामने श्रीकृष्ण चरित्र का 'सुमेरु' कहा है, जो श्रीकृष्ण के लीलाचरित्रों से व्याप्त है। नृपसिंह ! इसके श्रवणमात्र से शोक, मोह और भय का निवारण करने वाली श्रीकृष्ण भक्ति मनुष्यों को प्राप्त हो जाती है। मनुष्य केवल इस चरित्र के श्रवण और पठन से भी मनोवांछित फल धन धान्य, पुत्र, भक्ति तथा शत्रुसंहार प्राप्त कर लेता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भक्त्या कृष्णस्य राजेन्द्र प्रसादं चरणोदकम्। ये गृह्णन्ति भवेयुर्भूपावना नात्र संशय: ।।
गंगा पापं शशी तापं दैन्यं कल्पतरुर्हरेत। पापं तापं तथा दैन्यं सद्यं साधुसमागम: ।।
तावद् भ्रमन्ति संसारे पितर: पिण्डतत्परा:। यावद् वंशे सुत: कृष्णभक्तियुक्तो न जायते ।।
स किं स किं तात: किं पुत्र: स किं सखा। स किं राजा स किं बन्धुर्न दद्याद् यो हरौ मतिम् ।।
विद्याधनागारकुलाभिमानिनो रूपादिदारासुतनित्यबुद्धय:। दृष्ट्वान्यदेवान् फलकामिनश्व श्रीवन्मृतास्ते न भजन्ति केशवम् ।।(अ0 62। 8-12)
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