गर्ग संहिता
माधुर्य खण्ड : अध्याय 22
श्रीकृष्ण का नन्दराज को वरूणलोक से ले आना और गोप-गोपियों को वैकुण्ठधाम का दर्शन कराना श्रीनारदजी कहते हैं– एक दिन की बात है, नन्दराज एकादशी का व्रत करके द्वादशी को निशीथ-काल में ही ग्वालों के साथ यमुना-स्नान के लिये गये और जल में उतरे। वहाँ वरूण का एक सेवक उन्हें पकड़कर वरूण-लोक में ले गया। मैथिलेश्वर ! उस समय ग्वालों में कुहराम मच गया, तब उन सबको आश्वासन दे भगवान श्रीहरि वरूणपुरी में पधारे और उन्होंने सहास उस पुरी के दुर्ग को भस्म कर दिया। करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी श्रीहरि को अत्यन्त कुपित हुआ देख वरूण ने तिरस्कृत होकर उन्हें नमस्कार किया और उनकी परिक्रमा करके हाथ जोड़कर कहा। वरूण बोले - श्रीकृष्णचन्द्र को नमस्कार है। परिपूर्णतम परमात्मा तथा असंख्य ब्रह्माण्डों का भरण-पोषण करने वाले गोलोकपति को नमस्कार है। चतुर्व्यूह के रूप में प्रकट तेजोमय श्रीहरि को नमस्कार है। सर्वतेज: स्वरूप आप परमेश्वर को नमस्कार है। सर्वस्वरूप आप परब्रह्म परमात्मा को नमस्कार है। मेरे किसी मूर्ख सेवक ने यह पहली आपकी अवहेलना की है, उसके लिये आप मुझे क्षमा करें। परेश ! भूमन् ! मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये[1] नारदजी कहते हैं - राजन् ! यह सुनकर प्रसन्न हुए भगवान श्रीकृष्ण नन्दी को जीवित लेकर अपने बन्धुजनों को सुख प्रदान करते हुए व्रज मण्डल में लौट आये। नन्दराज के मुख से श्रीहरि के उस प्रभाव को सुनकर गोपी और गोप-समुदाय नन्दनन्दन श्रीकृष्ण से बोले - 'प्रभो ! यदि आप लोकपालों से पूजित साक्षात भगवान हैं तो हमें शीघ्र ही उत्तम वैकुण्ठ-लोक का दर्शन कराइये।' तब उन सबको लेकर श्रीकृष्ण वैकुण्ठधाम में गये और वहाँ उन्होंने ज्योतिर्मण्डल के मध्य में विराजमान अपने स्वरूप का उन्हें दर्शन कराया। उनके सहस्त्र भुजाएँ थी, किरीट और कटक आदि आभूषणों उनका स्वरूप और भी भव्य दिखायी देता था। वे शंख, चक्र, गदा, पद्य और वनमाला से सुशोभित थे। असंख्य कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी स्वरूप से शेषनाग की शय्या पर पौढे थे। चँवर डुलाये जाने से उनकी आभा और भी दिव्य जान पड़ती थी। ब्रह्म आदि देवता उनकी सेवा में लगे थे। उस समय भगवान के गदाधारी पार्षदों ने उन गोपगणों को सीधे करके उनसे प्रणाम करवाकर उन्हें प्रयत्नपूर्वक दूर खड़ा किया और उन्हें चकित-सा देख वे पार्षद बोले- 'अरे वनचरो ! चुप हो जाओ। यहाँ वक्कृता न दो, भाषण न करो। क्या तुमने श्रीहरि की सभा कभी नहीं देखी है ? यहीं सबके प्रभु देवाधिदेव साक्षात भगवान स्थित होते हैं और वेद उनके गुण गाते हैं।' इस प्रकार शिक्षा देने पर गोप हर्ष से भर गये और चुपचाप खडे़ ओ गये। अब वे मन-ही-मन कहने लगे-'अरे ! यह उँचे सिंहासन पर बैठा हुआ हमारा श्रीकृष्ण ही तो है। हम समीप खडे़ हैं, तो भी हमें नीचे खड़ा करके उँचे बैठ गया है और हमसे क्षण भर के लिये बात तक नहीं करता। इसलिये व्रज से बढ़कर न कोई श्रेष्ठ लोक है और न उससे बढकर दूसरा कोई सुखदायक लोक है, क्योंकि व्रज में तो यह हमारा भाई रहा है और इसके साथ हमारी परस्पर बातचीत होती रही है।' राजन् ! इस प्रकार कहते हुए उन गोपों के साथ परिपूर्णतम प्रभू भगवान श्रीहरि व्रज में लौट आये। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में माधुर्य खण्ड के अन्तर्गत श्रीनारद बहुलाश्व संवाद में 'नन्द आदि का वैकुण्ठ दर्शन' नामक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ • नम: श्रीकृष्णद्राय परिपूर्णतमायच। असंख्यब्रह्मण्डभृते गोलोकपतये नम: ।। चतुर्व्यूहाय मह से नमस्ते सर्वतेजसे। नमस्ते सर्वभावाय परस्मै ब्रह्मणे नम:।। केनापि मूढेन ममानुगेन कृतं परं हेलनमाद्यमेव। तत् क्षम्यतां भो: शरणं गतं मां परेश भूमन् परिपाहि पाहि ।। (गर्ग. माधुर्य. 22। 15-7)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |