गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 7
देवर्षि नारद का ब्रह्मलोक से आगमन; राजा उग्रसेन द्वारा उनका सत्कार; देवर्षि द्वारा अश्वमेध यज्ञ की महत्ता का वर्णन; श्रीकृष्ण की अनुमति एवं नारदजी द्वारा अश्वमेध यज्ञ की विधि का वर्णन श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन ! एक समय देवर्षि नारद बलराम और श्रीकृष्ण से मिलने के लिए अपनी वीणा बजाते और श्रीकृष्ण लीलाओं का गान करते हुए ब्रह्मलोक से चलकर समस्त लोकों को देखते हुए भूतल पर आये। वे सूर्यदेव के समान तेजस्वी जान पड़ते थे। उनके साथ तुम्बुरु भी थे। पिंगलवर्ण की जटाओं का भार उनके मस्तक की शोभा बड़ा रहा था। उनकी अंगकान्ति कुछ-कुछ श्याम थी, नेत्र मृगों के नयनों के समान विशाल थे, भालदेश में केसर के तिलक शोभा दे रहे थे। वे पीले रंग के धौतवस्त्र तथा रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए थे। रंगवल्ली की माला और गोपीचन्दन से मण्डित देवर्षि पन्द्रह वर्ष की-सी अवस्था से अत्यन्त सुशोभित होते थे। राजा उग्रसेन सुधर्मा-सभा में देवराज के दिये सिंहासन पर विराजमान थे। देवर्षि को आया देख वे उठकर खड़े हो गये और चरणों में प्रणाम करके उन्हें बैठने के लिए सिंहासन दिया। फिर उनके चरण पखारकर उत्तम विधि से पूजन किया और चरणोदक मस्तक पर रखकर राजा उग्रसेन नारदजी से बोले। श्रीउग्रसेन ने कहा- देवर्षे ! आपके दर्शन से आज मेरा जन्म सफल हो गया, मेरा सदन सार्थक हो गया और मेरा तन-मन एवं जीवन कृतार्थ हो गया। जो काम तथा क्रोध से रहित हैं, उन देवर्षिशिरोमणी महात्मा भगवान नारद को नमस्कार है। प्रभो ! आज्ञा कीजिये, आप किस प्रयोजन से यहाँ पधारे हैं ?। देवताओं के समान देदीप्यमान दिखायी देने वाले देवर्षि नारद राजा का यह विनययुक्त वचन सुनकर मन ही-मन श्रीहरि से प्रेरित हो उन नृपश्रेष्ठ से बोले। नारद ने कहा- यादवराज ! महाराज ! पृथ्वीनाथ ! तुम धन्य हो; तुम्हारे भक्तिभाव के कारण ही भगवान श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ इस भूतल पर निवास करते हैं। तुमने पूर्वकाल में मेरे ही कहने से क्रतुश्रेष्ठ राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया था, जो भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से द्वारकापुरी में सुखपूर्वक सम्पादित हुआ था। उस यज्ञ के अनुष्ठान से तीनों लोकों में तुम्हारी कीर्ति फैल गयीं थी। राजसूय तथा अश्वमेध- इन दो यज्ञों का सम्पादन चक्रवर्ती नरेशों के लिये अत्यन्त कठिन होता है। परंतु राजेन्द्र ! तुम हरिभक्त सम्राट हो; अत: तुम्हारे लिये दोनों सुलभ हैं। नरेश्वर ! दोनों यज्ञों में से एक-राजसूय यज्ञ को तो तुमने और राजा युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से पूर्ण कर लिया है। युधिष्ठिर के बाद द्वापर के अन्त में यज्ञप्रवर अश्वमेध का अनुष्ठान भारतवर्ष में दूसरे किसी भी राजा ने नहीं किया है। वह यज्ञ समस्त पापों का नाश करने वाला तथा मोक्षदायक है। द्विजघाती, विश्वहन्ता तथा गो हत्यारे भी अश्वमेध यज्ञ से शुद्ध हो जाते है; इसलिये सम्पूर्ण यज्ञों में अश्वमेध यज्ञ को सर्वश्रेष्ठ बताया जाता है। नृपेश्रष्ठ ! जो निष्कामभाव से अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करता है, वह भगवान गरुड़ध्वज के उस परमधाम में जाता है, जो सिद्धों के लिये भी दुर्लभ है। नरेश्वर ! देवर्षि का यह वचन सुनकर राजा उग्रसेन यज्ञप्रवर अश्वमेध के अनुष्ठान का विचार किया। उसी समय बलराम सहित श्रीकृष्ण को अपने निकट आया देख राजा उग्रसेन ने उनका पूजन करके उन्हें आसन पर बिठाया और देवर्षि के साथ इस प्रकार कहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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