गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 21
भद्रावतीपुरी तथा राजा योवनाश्व पर अनिरुद्ध की विजय श्रीगर्ग जी कहते हैं– तदनन्तर विमान पर बैठे हुए ऊषा वल्लभ अनिरुद्ध अपनी विजय दुन्दुभि बजवाते हुए आकाश मार्ग से शीघ्र ही अपनी सेना के पास आ गए। उन सबको आया देख अक्रूर आदि यादवों ने मिल कर सारा कुशल समाचार पूछा और उन लोगों सब कुछ बता दिया। तत्पश्चात् मूर्च्छा त्याग कर बक सहसा उठ खड़ा हुआ। वहाँ यादवों को न देखकर उसने पुत्र से रोषपूर्वक उनके चले जाने का कारण पूछा। तब भीषण ने पिता से सारा वृत्तान्त कह सुनाया। उसकी बात सुन कर रोष से बक के ओठ फड़कने लगे और वह कुपित होकर बोला– मैं जानता हूँ, जैसे सिंह के डर से हरिण भागते हैं, उसी प्रकार यादव मेरे भय से विमान द्वारा भाग कर कुशस्थली को चले गए हैं। इसलिए मैं पृथ्वी को यादवों से सूनी कर दूँगा, इसमें संशय नहीं है। अब मैं कृष्ण की द्वारका में जाकर समस्त यादवों का संहार करूँगा। भीषण ने कहा– महाराज ! क्रोध को रोकिए, यह समय हमारे अनुकूल नहीं है। जब दैव प्रसन्न होगा, तब हम यादवों को जीतेंगे। श्रीगर्गजी कहते हैं– राजन् ! पुत्र के इस प्रकार समझाने पर बकासुर चुप हो गया और वन जंतुओं को खाता हुआ वन में विचरने लगा। नृपेंद्र ! तदनन्तर अश्व का विधिपूर्वक अभिषेक करके श्रेष्ठ ब्राह्मणों को दान दे, विजयी प्रद्युम्न पुत्र अनिरुद्ध ने पुन: विजय यात्रा के लिए उसको छोड़ा। प्रद्युम्न कुमार के छोड़ने पर वह अश्व धैवत स्वर से हिनहिनाता और बहुत से वीर युक्त देशों का दर्शन करता हुआ भद्रावतीपुरी में जा पहुँचा। राजेंद्र ! भद्रावतीपुरी अनेक उपवनों से सुशोभित थी। पर्वत, दुर्ग से घिरी हुई थी तथा रजतमय मंदिर उसकी शोभा बढ़ाते थे। बड़े–बड़े वीर पुरुष उसमें निवास करते थे। राजा यौवनाश्व उस पुरी के रक्षक थे। लोहे के बने हुए कपाटों से वह पुरी अत्यंत दृढ़ थी। उसमें जाकर वह अश्व राजा से सम्मुख खड़ा हो गया। राजा ने उसे पकड़ा और सब बात जान कर वे क्रोधपूर्वक युद्ध करने के लिए सेना सहित पुरी से बाहर निकले। महाबली यौवनाश्व को सेना सहित सामने आय देख प्रद्युम्न कुमार अनिरुद्ध ने श्रीकृष्ण भक्त मंत्री उद्धव को बुलाकर पूछा। अनिरुद्ध ने कहा– मंत्रीजी ! यह सेना के साथ कौन हमारे सम्मुख आया है ? इसने अश्व का अपहरण किया है और यह हमारे शत्रुओं में मुख्य है, अत: इसके विषय में आप सारी बात बताइए। उद्धव बोले– सत्पुरुषों में श्रेष्ठ अनिरुद्ध ! इस राजा का नाम यौवनाश्व है। यरह मरुधन्व देश के स्वामी का पुत्र है और अपने पिता के दिवंगत होने पर यहाँ राज्य करता है। महाराज ! अभी यह सोलह वर्ष की अवस्था का है। अपने दुष्ट मंत्री के कहने से यह युद्ध अवश्य करेगा, परंतु आप इसका वध कदापि न करें। यह सुनकर बहुत अच्छा कहकर अनिरुद्ध युद्ध स्थल में यौवनाश्व के साथ उसी प्रकार युद्ध करने लगे, जैसे सिंह हाथी से लड़ रहा हो। ऊषापति अनिरुद्ध ने यौवनाश्व की तीन अक्षौहिणी सेना का संहार करके उसे रथहीन कर दिया और राजकुमार से यह उत्तम बात कही। अनिरुद्ध बोले– राजन ! मुझे घोड़ा लौटा दो, अन्यथा मेरे साथ युद्ध करो।उनकी यह बात सुन कर और उन्हें श्रीकृष्ण का पौत्र जान राजा को बड़ा भय हुआ। उसने अनिरुद्ध को विधिपूर्वक यज्ञ का घोड़ा समर्पित कर दिया और उनसे निमंत्रित हो उस राजा ने हाथ जोड़ कर कहा। यौवनाश्व बोला- नृपेश्वर ! जब द्वारका में यज्ञ होगा, उस समय मै भगवान श्रीकृष्णचंद्र के चरणारविंदों का दर्शन करने के लिए आऊंगा। तदनन्तर अनिरुद्ध ने उसे उसके राज्य पर प्रतिष्ठित कर दिया। यौवनाश्व ने उनके चरणों में प्रणाम किया और विजयी अनिरुद्ध ने उस श्रेष्ठ घोड़े को पुन: विजय के लिए छोड़ा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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