गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 14
शकट भंजन; उत्कच और तृणार्वत का उद्धार; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्णन श्री गर्गजी ने कहा- शौनक ! इस प्रकार मैंने भगवान श्रीकृष्ण के सर्वोत्कृष्ट दिव्य चरित्र का वर्णन किया। जो मनुष्य भक्ति पूर्वक इसका श्रवण करता है, वह कृतार्थ है, उसे परम पुरुषार्थ प्राप्त हो गया- इसमें संशय नहीं है। श्री शौनक जी बोले- मुने ! भगवान श्रीकृष्ण का मंगलमय चरित्र अमृत-रस से तैयार की हुई परम मधुर खाँड़ है। इसे साक्षात आपके मुख से सुनकर हम कृतार्थ हो गये। तपोधन ! संतों में श्रेष्ठ राजा बहुलाश्व भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। उनके मन में सदा शांति बनी रहती थी। इसके बाद उन्होंने मुनिवर नारद जी कौन-सी बात पूछी, यह मुझे बताने की कृपा कीजिये। श्री गर्ग जी ने कहा- शौनक ! तदनंतर मिथिला के महाराज बहुलाश्व हर्ष से उत्फुल्ल और प्रेम से विह्वल हो गये। फिर उन धर्मात्मा नरेश ने परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण का चिंतन करते हुए नारद जी से कहा। राजा बहुलाश्व बोले- मुने ! आपने भूरि-भूरि पुण्य कर्म किये हैं। आपके सम्पर्क से मैं धन्य और कृतार्थ हो गया; क्योंकि भगवान के भक्तों का संग दुर्लभ और दुस्साध्य है। मुने ! अद्भुत भक्तवत्सल साक्षात भगवान श्रीकृष्ण ने बाल्यावस्था में आगे चलकर कौनसी विचित्र लीला की, यह मुझे बताइये। श्रीनारद जी कहते हैं- राजन ! तुम श्रीकृष्ण सम्मत धर्म के पालक हो, तुमने यह बहुत उत्तम प्रश्न किया है। निश्चय ही संत पुरुषों का संग सबके कल्याण विस्तार करने वाला होता है। एक दिन, जब भगवान श्रीकृष्ण के जन्म का नक्षत्र प्राप्त हुआ था, नन्दरानी श्रीयशोदाजी ने गोप और गोपियों को अपने यहाँ बुलाकर ब्राह्मणों के बताये अनुसार मंगल-विधान सम्पन्न किया। उस समय श्याम-सलोने बालक श्रीकृष्ण को लाल रंग का वस्त्र पहनाया गया। अंगों को सुवर्णमय भूषणों से भूषित किया गया। उन्हें गोद में लेकर नेत्रों में काजल लगाया और गले में बघनखायुक्त चन्द्रहार धारण कराया तथा देवताओं को नमस्कार करके ब्राह्मणों के लिये उत्तम धन का दान दिया। तदनंत्तर गोपी यशोदा जी ने शीघ्र ही अपने लाला को पालने पर लिटा दिया और मंगल दिवस पर गोपियों में से प्रत्येक का अलग-अलग स्वागत किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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