गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 43
इलावृत वर्ष में राजा शोभन से भेंट की प्राप्ति; स्वायम्भुव मनु की तपोभूमि में मूर्तिमती सिद्धियों का निवास; लीलावतीपुरी में अग्निदेव से उपायन की उपलब्धि; वेदनगर में मूर्तिमान वेद, राग, ताल, स्वर, ग्राम और नृत्य के भेदों का वर्णन श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार भद्राश्व वर्ष पर विजय पाकर श्री यादवेश्वर हरि यादव सैनिकों के साथ इलावृत वर्ष को गये। मिथिलेश्वर ! इलावृत वर्ष में ही रत्नमय शिखरों से सुशोभित, देवताओं का निवास स्थान, दीप्तिमान स्वर्णमय पर्वतगिरि राजाधिराज ‘सुमेरु’ है, जो भूमण्डरुपी कमल की कर्णिका के समान शोभा पाता है। उसके चारों ओर मन्दर, मेरु-मन्दर, सुपार्श्व तथा कुमुद- ये चार पर्वत शोभा पाते हैं। इन चारों से घिरा हुआ वह एक गिरिराज सुमेरु धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चार पदार्थों से युक्त मनोरथ की भाँति शोभा पाता है। उस इलावृत वर्ष में जम्बूफल के रस से उत्पन्न होने वाला जाम्बूनद नामक स्वत: स्वर्ण उपलब्ध होता है। वहाँ जम्बूरस से ‘अरुणोदा’ नाम की नदी प्रकट हुई है, जिसका जल पीने से इस भूतल पर कोई रोग नहीं होता। राजन् ! वहाँ कदम्ब वृक्ष से उत्पन्न ‘कदम्ब’ नामक मधु की पाँच धाराएँ प्रवाहित होती हैं, जिनके पीने से मनुष्यों को कभी सर्दी-गरमी, विवर्णता (कान्ति का फीका पड़ना), थकावट तथा दुर्गन्ध आदि दोष नहीं प्राप्त होते। उन मधु-धाराओं से काम पूरक नद प्रकट हुए हैं, जो मनुष्यों की इच्छा के अनुसार रत्न, अन्न, वस्त्र, सुन्दर आभूषण, शय्या तथा आसन आदि जो-जो दिव्य फल हैं, उन सबको अर्पित करते हैं। इस प्रकार वहाँ सुप्रसिद्ध ‘ऊर्ध्ववन’ है, जहाँ भगवान संकर्षण विराजते हैं, जिस वन में भगवन शिव स्वत: अपनी प्रेयसी ज्योतियों के साथ रमण करते हैं तथा जिसमें गये हुए पुरुष तत्काल स्त्री पुरुष में परिणत हो जाते हैं। स्वर्णमय कमल, शीतल वसन्त वायु, केसर के वृक्ष, लवंग लताओं के समूह तथा देववृक्षों की सुगन्ध के सेवन से मदान्ध भ्रमर- ये सब इलावृत वर्ष की अत्यन्त शोभा बढ़ाते हैं। वैदूर्यमणि के अकुंरों से विचित्र लगने वाली वहाँ की मनोहर स्वर्णमयी भूमि को देखते हुए भगवन श्रीहरि ने अलंकार मण्डित देवताओं से पूर्ण इलावृत वर्ष को जीतकर वहाँ से भेंट ग्रहण की। पूर्वकाल के सत्ययुग में राजा मुचुकुन्द के जामाता शोभन ने भारतवर्ष में एकादशी का व्रत करके जो पुण्य अर्जन किया, उसके फलस्वरूप देवताओं ने उन्हें मन्दराचल पर निवास दे दिया। आज भी वह राजकुमार कुबेर की भाँति रानी चन्द्राभागा के साथ वहाँ राज्य करता है। मिथिलेश्वर ! वह परम सुन्दर शोभन भेंट लेकर देवप्रवर भगवान श्रीकृष्ण के सामने आया। यदुकुलतिलक श्रीहरि की परिक्रमा करके शोभन उनके चरणारविन्दों में पड़ गया और भक्तिपूर्वक प्रणाम करके, उन परमात्मा को शीघ्र ही भेंट देकर पुन: मन्दराचल को चला गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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