गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 9
गर्गजी की आज्ञा से देवक का वसुदेव जी के साथ देवकी का विवाह करना; विदाई के समय आकाशवाणी सुनकर कंस का देवकी को मारने के लिये उद्यत होना और वसुदेव जी की शर्त पर जीवित छोड़ना श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! एक समय की बात है, श्रेष्ठ मथुरा पुरी के परम सुन्दर राजभवन में गर्गजी पधारे। वे ज्यौतिष शास्त्र के बड़े प्रामाणिक विद्वान थे। सम्पूर्ण श्रेष्ठ यादवों ने शूरसेन की इच्छा से उन्हें अपने पुरोहित के पद पर प्रतिष्ठित किया था। मथुरा से उस राजभवन में सोने के किवाड़ लगे थे, उन किवाड़ों में हीरे भी जड़े गये थे। राजद्वार पर बड़े-बड़े गजराज झूमते थे। उनके मस्तक पर झुंड़-के-झुंड़ भौंरें आते और उन हाथियों के बड़े-बड़े कानों से आहत होकर गुंजारव करते हुए उड़ जाते थे। इस प्रकार वह राजद्वार उन भ्रमरों के नाद से कोलाहल पूर्ण हो रहा था। गजराजों के गण्ड स्थल से निर्झर की भाँति झरते हुए मद की धारा से वह स्थान समावृत था। अनेक मण्डप समूह उस राजमन्दिर की शोभा बढ़ाते थे। बड़े-बड़े उद्भट वीर कवच, धनुष, ढ़ाल और तलवार धारण किये राजभवन की सुरक्षा में तत्पर थे। रथ, हाथी, घोड़े और पैदल- इस चतुरंगिणी सेना तथा माण्डलिकों की मण्डली द्वारा भी वह राजमन्दिर सुरक्षित था। मुनिवर गर्ग ने उस राजभवन में प्रवेश करके इन्द्र के सदृश उत्तम और ऊँचे सिन्हासन पर विराजमान राजा उग्रसेन को देखा। अक्रूर, देवक तथा कंस उनकी सेवा में खड़े थे और राजा छत्र चँदोवे से सुशोभित थे तथा उन पर चँवर ढुलाये जा रहे थे। मुनि को उपस्थित देख राजा उग्रसेन सहसा सिन्हासन से उठकर खड़े हो गये। उन्होंने अन्यान्य यादवों के साथ उन्हें प्रणाम किया और सुभद्र पीठ पर बिठाकर उनकी सम्यक प्रकार से पूजा की। फिर स्तुति और परिक्रमा करके वे उनके सामने विनीत भाव से खड़े हो गये। गर्ग मुनि ने राजा को आशीर्वाद देकर समस्त राज परिवार का कुशल-मंगल पूछा। फिर उन महामना महर्षि ने नीतिवेत्ता यदुश्रेष्ठ देवक से कहा। श्री गर्गजी बोले- राजन ! मैंने बहुत दिनों तक इधर-उधर ढूँढ़ा और सोचा-विचारा है। मेरी दृष्टि में वसुदेवजी को छोड़कर भूमण्डल के नरेशों में दूसरा कोई देवकी के योग्य वर नहीं है। इसलिये नरदेव ! वसुदेव को ही वर बनाकर उन्हें अपनी पुत्री देवकी को सौंप दो और विधिपूर्वक दोनों का विवाह कर दो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |