गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 42
श्रीकृष्ण का यादवों के साथ चन्द्रावतीपुरी में जाकर शकुनि-पुत्र को वहाँ का राज्य देना तथा शकुनि आदि के पूर्व जन्मों का परिचय नारदजी कहते हैं- राजन् ! बचे हुए दैत्य रणभूमि से भाग गये। यादवेन्द्र भगवान श्रीहरि वीणा, वेणु, मृदंग और दुन्दुभि आदि बाजे बजवाते और सूत, मागध एवं वन्दीजनों के मुख से अपने यश का गान सुनते हुए, पुत्रों तथा अन्य यादवों के साथ सेना से घिरकर शंख, चक्र गदा, कमल और शागर्ड धनुष से सुशोभित हो, देवताओं सहित चन्द्रावतीपुरी में गये। वहाँ अपने पति के मारे जाने के कारण रानी मदालसा शकुनि के पुत्र को गोद में लिये दु:ख से आतुर हो अत्यन्त करुणा जनक विलाप कर रही थी। उसके मुख पर अश्रुधारा बह रही थी और वह अत्यन्त दीन हो गयी थी। उसने तुरंत ही हाथ जोड़कर अपने बच्चे को श्रीकृष्ण के चरणों में डाल दिया और भगवान को नमस्कार करके कहा। मदालसा बोली- प्रभो ! आदिदेव ! आप भूतल का भार उतारने के लिये यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं। आप ही संसार के स्त्रष्टा हैं और प्रलयकाल आने पर आप ही इसका संहार करेंगे; किंतु कभी आप गुणों से लिप्त नहीं होते। मैं आपकी अनुकूलता प्राप्त करने के लिये आपके चरणों में प्रणाम करती हूँ। मेरा बेटा बहुत डरा हुआ है। आप इसकी रक्षा कीजिये। देव ! इसके मस्तक पर अपना वरद हस्त रखिये। देवेश ! जगन्निवास ! मेरे पति ने आपका जो अपराध किया है, उसे क्षमा कीजिये। नारदजी कहते हैं- राजन् ! मदालसा के यों कहने पर महामति भगवान श्रीकृष्ण ने उस बालक के मस्तक पर अपने दोनों हाथ रखकर चन्द्रावती का सारा राज्य उसे दे दिया। फिर कल्पपर्यन्त की लंबी आयु देकर वैराग्य पूर्णज्ञान एवं अपनी शक्ति प्रदान की। तदनन्तर वैराग्य पूर्णज्ञान एवं अपनी भक्ति प्रदान की। तदनन्तर उस शकुनि कुमार को श्रीकृष्ण ने अपने गले की सुन्दर माला उतारकर दे दी। शकुनि ने पहले युद्ध में इन्द्र से जो उच्चै:श्रवा घोड़ा, चिन्तामणि रत्न, कामधेनु और कल्पवृक्ष छीन लिये थे, वे सब श्रीजनार्दन ने प्रयत्नपूर्वक देवेन्द्र को लौटा दिये: क्योंकि भगवान स्वयं ही गौओं, ब्राह्मणों, देवताओं, साधुओं तथा वेदों के प्रति पालक हैं। बहुलाश्व ने पूछा- देवर्षे ! पूर्वकाल में ये महाबली शकुनि आदि दैत्य कौन थे और कैसे इन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई इस बात को लेकर मेरे मन में बड़ा आश्चर्य हो रहा था। नारदजी कहते हैं- राजन् ! पूर्वकाल के ब्रह्मकल्प की बात है, परावसु गन्धर्वों का राजा था। उसके बड़े सुन्दर नौ औरस पुत्र हुए। वे सभी कामदेव के समान रूप सौन्दर्यशाली, दिव्यभूषणों से विभूषित और गीत-वाद्य विशारद थे तथा प्रतिदिन ब्रह्मलोक में गान किया करते थे। उनके नाम थे- मन्दार, मन्दर, मन्द, मन्दहास, महाबल, सुदेव, सुघन, सौध और श्रीभानु। एक समय ब्रह्माजी ने अपनी पुत्री वाग्देवता सरस्वती को मोहपूर्वक देखा। विधाता के इस व्यवहार को लक्ष्य करके परावसु के पुत्र मन ही मन हंसने लगे। सुरश्रेष्ठ ब्रह्म के प्रति अपराध करने के कारण उन्हें तामसी योनि में जाना पड़ा। श्वेतवाराह कल्प आने पर वे नवों गन्धर्व हिरण्याक्ष की पत्नी के गर्भ से उत्पन्न हुए। उस समय उनके नाम इस प्रकार हुए शकुनि, शम्बर, हष्ट, भूत-संतापन, वृक, कालनाभ, महानाभ, हरिशमश्रु तथा उत्कच। एक दिन की बात है, अपने घर पर आये हुए अपान्तरतमा मुनि को नमस्कार करके उनकी विधिवत पूजा करने के पश्चात् उन सब ने आदरपूर्वक इस प्रकार पूछा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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