गर्ग संहिता
माधुर्य खण्ड : अध्याय 10
पुलिन्द कन्यारूपिणी गोपियों के सौभाग्य का वर्णन श्रीनारदजी कहते हैं– अब पुलिन्द (कोल-भील) जाति की स्त्रियों का जो गोपी-भाव को प्राप्त हुई थीं, मैं वर्णन करता हूँ। यह वर्णन समस्त पापों का अपहरण करने वाली, पुण्यजनक, अदभुत और भक्ति-भाव को बढ़ाने वाला है। विन्ध्याचल के वन में कुछ पुलिन्द (कोल-भील) निवास करते थे। वे उद्भट योद्धा थे और केवल राजा का धन लूटते थे। गरीबों की कोई चीज कभी नहीं छूते थे। विन्ध्यदेश के बलवान राजा ने कुपित हो दो अक्षौहिणी सेनाओं के द्वारा उन सभी पुलिन्दों पर घेरा डाल दिया। वे पुलिन्द भी तलवारों, भालों, शूलों, फरसों, शक्तियों, ऋष्टियों, भुशण्डियों ओर तीर-कमानों से कई दिनों तक राजकीय सैनिकों के साथ युद्ध करते रहे। (विजय की आशा न देखकर) उन्होंने सहायता के लिये यादवों के राजा कंस के पास पत्र भेजा। तब कंस की आज्ञा से बलवान दैत्य प्रलम्ब वहाँ आया। उसका शरीर दो योजन उँचा था। देह का रंग मेघों की काली घटा के समान काला था। माथे पर मुकुट तथा कानों में कुण्डल धारण किये वह दैत्य सर्पों की माला से विभूषित था। उसके पैरों में सोने की साँकल थी और हाथ में गदा लेकर वह दैत्य काल के समान जाना पड़ता था। उसकी जीभ लपलपा रही थी और रूप बड़ा भयंकर था। वह शत्रुओं पर पर्वत की चट्टानें तथा बड़े-बड़े वृक्ष उखाड़कर फेंकता था। पैरों की धमक से धरती को कँपाते हुए रणदुर्मद दैत्य प्रलम्ब को देखते ही भयभीत तथा पराजित हो विन्ध्य-नरेश सेनासहित समरांगण छोड़कर सहसा भाग चले, मानों सिंह को देखकर हाथी भाग जाता हो। तब प्रलम्ब उन सब पुलिन्दों को साथ ले पुन: मथुरापुरी को लौट आया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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