गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 21
गोपंगनाओं के साथ श्रीकृष्ण का वन-विहार, रास-क्रीड़ा; मानवती गोपियों को छोड़कर श्रीराधा के साथ एकांत-विहार तथा मानिनी श्रीराधा को भी छोड़कर उनका अंतर्धान होना श्री नारद जी कहते हैं- नरेश्वर ! इस प्रकार रमणीय कुमुदवन में मालती पुष्पों के सुन्दर वन में; आम, नारंगी तथा नीबुओं के सघन उपवन में; अनार, दाख और बादामों के विपिन में; कदम्ब, श्रीफल (बेल) और कुटुजों के कानन में; बरगद, कटहल और पीपलों के सुन्दर वन में; तुलसी, कोविदर, केतकी, कदली, करील-कुंज, बकुल (मौलिश्री) तथा मन्दारों के मनोहर विपिन में विचरते हुए श्यामसुन्दर व्रज वधूटियों के साथ कामवन में जा पहुँचे । वहीं एक पर्वत पर श्रीकृष्ण ने मधुर स्वर में बाँसुरी बजायी। उसकी मोहक तान सुनकर व्रज सुन्दरियाँ मूर्च्छित और विह्वल हो गयीं। राजन ! आकाश में देवताओं के साथ विमानों पर बैठी हुई देवांगनाएँ भी मोहित हो गयीं। कामदेव के बाणों से उनके अंग-अंग बिंध गये तथा उनके नीबी-बन्ध ढीले होकर खिसकने लगे। स्थावरों सहित चारों प्रकार के जीव समुदाय मोह को प्राप्त हो गये, नदियों और नदों का पानी स्थिर हो गया तथा पर्वत भी पिघलने लगे। कामवन की पहाड़ी श्यामसुन्दर के चरण चिह्नों से युक्त हो गयी, जिसे ‘चरण-पहाड़ी’ कहते हैं। उसके दर्शनमात्र से मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है। तदनंतर राधा वल्लभ श्रीकृष्ण ने नन्दीश्वर तथा बृहत्सानुगिरियों के तट-प्रांत में रास-विलास किया। मिथिलेश्वर! वहाँ गोपियों को अपने सौभाग्य पर बड़ा अभिमान हो गया, तब श्रीहरि उन सबको वहीं छोड़ श्रीराधा के साथ अदृश्य हो गये। मिथिलानरेश ! उस निर्जन वन में श्रीकृष्ण के बिना समस्त गोपंगनाएँ विरह की आग में जलने लगीं। उनके नेत्र आसुओं से भर गये और वे चकित हिरनियों की भाँति इधर-उधर भटकने लगीं। जैसे वन में हाथी के बिना हथिनियों और कुरर के बिना कुररियाँ व्यथित होकर करूण-क्रन्दन करती हैं, उसी प्रकार श्रीकृष्ण को न देखकर व्यथित तथा विरह से अत्यंत व्याकुल हो व्रजांगनाएँ फूट-फूटकर रोने लगीं। राजन! नरेश्वर! वे सब-की-सब एक साथ मिलकर तथा पृथक-पृथक दल बनाकर वन-वन में जातीं और उन्मत्त की तरह वृक्षों तथा लता-समूहों से पूछतीं- ‘तरूओ तथा वल्लरियो ! शीघ्र बताओ, हमारे प्यारे नन्दनन्दन कहाँ जा छिपे हैं ?’ अपनी वाणी से ‘श्रीकृष्ण ! श्रीकृष्ण !’ कहकर पुकारती थीं। उनका चित्त श्रीकृष्ण चरणाविन्दों में ही लगा हुआ था। अत: वे सब अंगनाएँ श्रीकृष्ण स्वरूपा हो गयीं- ठीक उसी तरह जैसे भृंग के द्वारा बन्द किया हुआ कीड़ा उसी के चिंतन से भृंगरूप हो जाता है। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। श्रीकृष्ण की चरणपादुका से चिह्नित स्थान पर पहुँचकर गोपियाँ श्रीपादुकाब्ज की शरण में गयीं। तदनंतर भगवान की ही कृपा से उनके चरण चिह्न के अर्चन और दर्शन से गोपियों को भगवच्चरण चिह्नों से अलंकृत भूमिका विशेष रूप से दर्शन होने लगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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