गर्ग संहिता
श्रीविज्ञान खण्ड : अध्याय 5
भक्ति की महिमा का वर्णन श्रीव्यासजी ने कहा- राजन ! वत्सासुर, अघासुर, धेनुकासुर, वकासुर, पूतना, केशी, काल-यवन, अरिष्टासुर, प्रल्म्बासुर, द्विविद नामक बंदर, बल्वल, शंख और शाल्व-इन सभी ने जब प्रकृति और पुरुषों से परे प्रभु को प्राप्त कर लिया, तब फिर भक्ति भाव रखने वाले उन्हें प्राप्त कर लें, इसमें कहना ही क्या है। राजन् ! पूर्वकाल की बात है- अत्यन्त बलशाली मधु और कैटभ नाम के दानव, इस प्रकार हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु तथा रावण और कुम्भकर्ण भी भगवान विष्णु के साथ वैर ठानकर उनके परम पद को प्राप्त हो गये। फिर जो सदा सत्संग से प्रेम करते थे तथा अत्यन्त आदरणीय भगवान के शोभायुक्त चरण कमलों के मकरन्द एवं पराग में जिनका मन लुभाया रहता था- ऐसे प्रहलाद, बाणासुर, राजाबलि, शंखचूड़ एवं विभीषण आदि किस किसने भगवान विष्णु के धाम को नहीं प्राप्त किया देवर्षि नारद, बृहस्पति, वसिष्ठ, पराशर आदि तथा सांख्यायन, आसित, शुकदेव एवं सनक प्रभृति चरण-कमलों के मकरन्द के प्रधान भ्रमर कहे जाते हैं- भूमण्डल में बिना ही स्वार्थ के भ्रमण करते रहते हैं। यति, उत्कल, अंग, भरत, अर्जुन, जानकजी, गाधि, प्रियव्रत, यदु आदि एवं अम्बरीष तथा अन्य निष्काम भक्त एवं श्रेष्ठ परम हंसगण भगवान श्रीकृष्ण की अमृतमयी कथा के पान से मस्त हुए मन्दोदरी, मतंग मुनि की शिष्या भक्तिमती शबरी, तारा, अत्रिमुनी की प्रिया साध्वी अनसूया, अहल्या, कुन्ती और द्रुपद राजकुमारी द्रौपदी- ये सभी प्रशंसनीय भक्त-महिलाएं हो चुकी हैं। परम हंसों के समान ही इनकी भी ख्याति है। सुग्रीव, अंगद, हनुमान, जाम्बवान्, गरुड़, जटायु, काकभु शुण्डि आदि तिर्यक योनियों के संत, कुब्जा, वायक, सुदामा माली तथा गुह आदि भी भक्तों का संग पाकर श्रीहरि के उत्तम भक्त बन गये। धर्म, तप, योग, सांख्य, यज्ञ, तीर्थ-यात्रा, यम-नियम, चान्द्रायण आदि व्रत, वेदपाठ, दक्षिणा, पूजा अथवा दान-भक्ति के बिना ये कोई भी भगवान श्रीकृष्ण को वश में नहीं कर सकते। यज्ञ, व्रत, स्वाध्याय, तप, तीर्थ, योग, पूजा, नियमादि और सांख्य योग- इनसे जो फल मिलता है, वह सबका सब इस संसार में भक्ति से सुलभ है। इतना ही नहीं, भक्ति से जिस पद की उपलब्धि होती है, वह इन साधनों से कभी उपलब्ध नहीं हो सकता। यह भक्ति जगत भर के पापों से अधमों का उद्धार करने वाली, जगत से तार ने वाली, संसाररुपी महासागर के भव-जल प्रवाह से उबारने वाली, विषय सेवन के द्वारा संचित कर्मों का नाश करने वाली है। यह भक्ति भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन रुपी रस के प्रति औत्सुक्य से सुशोभित परम उत्सव मनाने के लिये वसन्त पंचमी के समान है। साथ ही यह प्रचुर फल एवं पल्लवों के भार से झुकी हुई वसन्त कालीन दिव्य लता के समान सदा शोभा पाती है। मोहरुपी काले बादल के बीच चमकती हुई बिजली की भांति यह भक्ति शास्त्रों में छिपे हुए रहस्यों के वचनों को प्रकट करने वाली ज्योति समान है। इसे विजय रूप कार्तिक की दीपावली तथा सर्वजयी गुणों पर विजय पाने के लिये विजयादशमी भी कह सकते हैं। सांख्य और योग जिसके अगल-बगल में लगे हुए डंडे हैं, सैकड़ों गुणों और भावों के भेद जिसकी कीले हैं, वे ही जिसके पहुँचाने वाली ऐसी यह सरल सीढ़ी है। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में श्रीविज्ञान खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘भक्ति की महिमा का वर्णन’ नामक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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