गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 55
श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन ! तत्पश्चात आठ द्वारों से युक्त, फहराती हुई पताकाओं से सुशोभित, अग्निकुण्डों से सम्पन्न और आठ याज्ञिकों से युक्त रमणीय यज्ञमंडल में, जहाँ पलाश, बेल, तथा बहुवार के यूप शोभा दे रहे थे, अनेकानेक वेदिकाओं तथा चषालों (यज्ञसतम्भों ऊपर लगे हुए काष्ठमय वलयों) से जो विभूषित था तथा जिसमें स्त्रुवा, मृगचर्म, कुश, मूसल और उलूखल आदि वस्तुएँ संकलित थीं और इसने अतिरिक्त भी जहाँ बहुत-सी सामग्रियों और नाना प्रकार की वस्तुओं का संग्रह किया गया था, राजर्षि उग्रसेन वेदों के पारंगत महर्षियों तथा यादवों के साथ वैसी ही शोभा पा रहे थे, जैसे अमरावतीपुरी में देवराज इन्द्र देवताओं के साथ सुशोभित होते हैं। भगवान श्रीकृष्णचंन्द्र के आमंत्रण पर नन्द आदि गोप, वृषभानुवर आदि श्रेष्ठ पुरुष तथा श्रीदामा आदि ग्वाल-बाल द्वारकापुरी में आये। यशोदा, राधिका तथा अन्य सब व्रजांगनाएं शिबिकाओं और रथों पर आरूढ़हो प्रसन्नतापूर्वक कुशस्थली में आयीं। बुलावा जाने पर अपने पुत्रों और कौरवों के साथ राजा धृतराष्ट्र भी वहाँ आये। अन्यान्य नरेश भी निमंत्रण पाकर कुशस्थली में पधारे। श्रीकृष्ण से आमंत्रित हो युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव अपनी पत्नी द्रौपदी के साथ वन से वहाँ आये। श्रीकृष्ण ने नारदजी को भेजकर इन्द्र आदि आठ दिक्पालों, आठ वसुओं, बारह आदित्यों, चारों सनत्कुमारों, ग्यारह रुद्रों, मरुद्गणों, वेतालों, गन्धर्वों, किंनरों, विश्वेदेवों, समस्त साध्यगणों, विद्याधरों, देवताओं, देवपत्नियों, गन्धर्वियों और अप्सराओं को बुलवाया । राजन ! वे सब लोग श्रीकृष्ण दर्शनकी अभिलाषा से द्वारका में पधारे। कैलास से सर्वमंगला पार्वती के साथ भगवान शिव भी बुलाये गये। सुतलोक से दैत्य समुदाय के साथ प्रहलाद और बलि आये। विभीषण, भीषण, मय और बल्वल का भी वहाँ आगमन हुआ। दंष्ट्राधारी वनजन्तुओं के साथ जाम्बवान,वानरों के साथ हनुमान, पक्षियों के साथ पक्षिराज गरुड़ तथा सर्पों के साथ नागराज वासुकि भी वहाँ पधारे। महाराज ! धेनुओं के साथ धेनुरूपधारिणी धरा देवी भी उपस्थित हुईं। पर्वतों के साथ मेरु और हिमालय, वृक्षों के साथ बरगद, रत्नयुक्त रत्नाकर (समुद्र), नदियों के साथ स्वर्धुनी (गंगा), समस्त तीर्थों के साथ तीर्थराज प्रयाग और पुष्कर- ये सब आमंत्रित होकर बड़ी प्रसन्नताके साथ उस यज्ञ में आये। फिर श्रीकृष्ण के आवाहन पर व्रजभूमि भी वहाँ आ गयी। प्रद्युम्न कुमार की यह लीला देखकर देवता, यादव और भूपगण आश्चर्यचकित हो परस्पर एक दूसरे के कान में इसी बात की चर्चा करने लगे। श्रीकृष्ण का यज्ञोत्सव देखने के लिए यमराज की बहिन यमुनाजी भी आयीं। उन सबको आया देख राजा उग्रसेन ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उन्हें यथायोग्य स्थानों में ठहराया। किन्हीं को शिविरों में, किन्हीं को मंदिरों में, किन्हीं को विमानों में और किन्हीं को उपवनों में आवास स्थान दिया गया। उस यज्ञ में मैंने वेदव्यासजी को आचार्य बनाया और बकदाल्भ्य को ब्रह्मा तथा पहले जिन लोगों को निमंत्रित किया गया था, वे दिव्य ॠषि-महर्षि ॠत्विज बनाये गये। नरेश्वर ! इसके बाद यज्ञ में श्रीकृष्ण की इच्छा से अनिरुद्ध ब्रह्मा का, चन्द्रमा का और अपना भी पृथक-पृथक रूप धारण करके तीन रूपों में सुशोभित हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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