गर्ग संहिता
द्वारका खण्ड : अध्याय 18
श्रीराधा ने कहा- सखियों ! बहुत-सी सुन्दरियों से भरा हुआ यहाँ का रास भी बहुत अच्छा रहा है; परंतु पहले-पहल वृन्दावन में जो रास हुआ था, उसके समान यह कदापि नहीं था। उसके समान यह कदापि नहीं था। यहाँ दिव्य वृक्षों और लताओं से व्याप्त, प्रेम के भार से झुकी हुई लता वल्लरियों से विलसित और मधुमत मधुपों से सुशोभित वृन्दावन कहाँ है? पुष्प-समूहों की बहाती हुई फूलों के छाप से अलंकृत श्यामपटक की भाँति शोभा पाने वाली हंसों और पद्मवनों से व्याप्त यमुना नदी यहाँ कहाँ उपलब्ध है ? फूलों के भार से झुकी हुई माधवी लताएं यहाँ दिखायी देती हैं ? प्रेमपरवश पक्षी कहाँ मधुर स्वरों में गान कर रहे हैं ? चंचल भ्रमर-पुंजों से युक्त कुंजों और दिव्य-मन्दिरों से मण्डित निकुंज यहाँ कहाँ सुलभ हैं ? कमलों के पराग को लेकर शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु यहाँ कहाँ बह रही है ! ऊँचे-ऊँचे मनेाहर शिखरों से सुशोभित, सर्वत्र फल-फूलों से सम्पन्न तथा सुन्दर कन्दराओं से अलंकृत महाकाय गजराज की भाँति शोभा पाने वाले गिरिराज गोर्वधन यहाँ कहाँ दृष्टि गोचर होता है ? जहाँ वायु ने कोमल बालू का संचय कर रखा है, यमुना के उस रमणी पुलिन पर वंशी और बेंत की छड़ी रखा है, यमुना के उस रमणीय पुलिन पर वंशी धारण किये, मल्ल अथवा नटवर के वेष में विराजित श्यामसुन्दर की झांकी यहाँ कहाँ मिल रही है ? इस स्थान पर श्रीकृष्ण के लिये वनमाला से विभूषित श्रृंगार कहाँ उपलब्ध है ? श्यामसुन्दर की काली, घुँघराली और सुगन्धयुक्त अलकावलियों का दर्शन यहाँ कहाँ होता है ? श्रीकृष्ण के स्निग्ध कपोलों से मनोहर मुख पर दोनों ओर कुण्डलों का हिलाना-डुलना कहाँ दीखता है ? उनके मुख पर पत्र-रचना कहाँ की गयी है ? कहाँ सुगन्ध के लोभ से भ्रमरावलियां टूटी पड़ती हैं ? कहाँ वह प्रेमपूर्ण निरीक्षण, स्वर्श और हर्षोलास यहाँ सुलभ हुआ ? कामदेव के तीखे बाणों को तिरस्कृत करने वाले नेत्रकोणों से निहारने पर जो कटाक्षपात जनित प्रकट होता है, वह यहाँ कहाँ प्राप्त हुआ है ? दोनों हाथों से एक-दूसरों को पकड़कर खीचना, हाथ से हाथ छुड़ाना, निकुंज में छिपना, सामने होने पर भी दिखायी न देना आदि लीलाएं यहाँ कहाँ दिखायी देती है ? यहाँ चीर उठा लेना अथवा वंशी और बेंत को चुरा लेना कहाँ खींचकर हृदय से लगाना, बार-बार एक दूसरे को पकड़ना, श्यामसुन्दर की बांहो पर चन्दन का लेप लगाना आदि बातें यहाँ कहाँ सम्भव हुई है ? जहां-जहाँ की जो लीला है, वहीं-वहीं वह शोभा पाती है। जहाँ वृन्दावन नहीं है, वहाँ मेरे मन को सुख नहीं मिल सकता। नारदजी कहते हैं- श्रीराधा की यह बात सुनकर सारी पटरानियों ने अपने रास-सम्बन्धी अभिमान को त्याग दिया। वे हर्षित और विस्मित हो गयीं। इस प्रकार राधिकावल्लभ श्रीकृष्ण सिद्धाश्रम रासक्रीड़ा सम्पन्न करके, समस्त गोपियों को साथ ले, श्रीराधा और अपनी रानियों–सहित द्वारका में प्रविष्ट हुए। उन्होंने श्रीराधा के लिये बहुत-से सुन्दर मन्दिर बनवाये। उन समस्त व्रजांगनाओं के रहने के लिये भी सुखपूर्वक व्यवस्था की। नरेश्वर ! इस प्रकार मैंने सिद्धाश्रम की कथा तुम्हें सुनायी है, जो समस्त पापों को हर लेने वाली, पुण्यमयी तथा सबको मोक्ष देने वाली है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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