गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 1
तब शंख ने अपने सिर से भगवान विष्णु के वक्ष:स्थल में प्रहार किया। किंतु उसके उस प्रहार से परात्पर श्री हरि विचलित नहीं हुए। उस समय मत्स्यरूपधारी श्री हरि ने हाथ में गदा लेकर महाबली शंखरूपधारी उस दैत्य की पीठ पर आघात किया। गदा के प्रहार से वह इतना पीड़ित हुआ कि उसका चित्त कुछ व्याकुल हो गया; किंतु पुन: उठकर उसने सर्वेश्वर श्री हरि को मुक्के से मारा। तब कमल नयन साक्षात भगवान विष्णु ने कुपित हो अपने चक्र से उसके सुदृढ़ मस्तक को सींग सहित काट डाला। व्रजेश्वर ! इस प्रकार शंख को जीतकर देवताओं के साथ सर्वव्यापी श्री हरि ने प्रयाग में आकर वे चारों वेद ब्रह्माजी को दे दिये। फिर सम्पूर्ण देवताओं के साथ उन्होंने विधिवत यज्ञ का अनुष्ठान किया और प्रयाग तीर्थ के अधिष्ठता देवता को बुलाकर उसे ‘तीर्थराज’ पद पर अभिषिक्त कर दिया। साक्षात अक्षयवट को तीर्थराज के लिये लीला छत्र-सा बना दिया। मुनि कन्या गंगा तथा सूर्य सुता यमुना अपनी तरंगरूपी चामरों से उनकी सेवा करने लगीं। उसी समय जम्बू द्वीप के सारे तीर्थ भेंट लेकर बुद्धिमान तीर्थ राज के पास आये और उनकी पूजा और वन्दना करके वे तीर्थ अपने-अपने स्थान को चले गये। नन्द! जब देवताओं के साथ श्री हरि भी चले गये, तब वहीं कलहप्रिय मुनीन्द्र नारद जी आ पहुँचे और सिन्हासन पर देदीप्यमान तीर्थ राज से बोले। श्रीनारदजी ने कहा- महातपस्वी तीर्थराज ! निश्चय ही तुम समस्त तीर्थों द्वारा विशेष रूप से पूजित हुए हो, तुम्हें सभी मुख्य-मुख्य तीर्थों ने यहाँ आकर भेंट समर्पित की है; परंतु व्रज के वृन्दावन तीर्थ यहाँ तुम्हारे सामने नहीं आये। तुम तीर्थों के राजाधिराज हो, व्रज के प्रमादी तीर्थों ने यहाँ न आकर तुम्हारा तिरस्कार किया है। सन्नन्द कहते हैं- यों कहकर साक्षात देवर्षि-शिरोमणि नारद जी वहाँ से चले गये। तब तीर्थ राज के मन में बड़ा क्रोध हुआ और वे उसी क्षण श्री हरि के लोक में गये। श्री हरि को प्रणाम और उनकी परिक्रमा करके सम्पूर्ण तीर्थों से घिरे हुए तीर्थ राज हाथ जोड़कर भगवान के सामने खड़े हुए और उन श्रीनाथ से बोले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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