गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 26
श्री नारदजी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर प्रद्युम्नजी ने मनोहारिणी रंगवल्लीजी का दर्शन किया और उसकी परिक्रमा करके वे अन्य देशों को गये। हेमकूट की तलहटी में एक बड़ा भयंकर वन प्राप्त हुआ, जो झिल्लियों की झनकार से युक्त और सिंह तथा चीतों के दहाड़ने की आवाज से युक्त और सिंह तथा चीतों के दहाड़ने की आवाज से व्याप्त था। जंगली गजराजों से भरे उस वन में गीदड़ों और उल्लुओं की आवाज सुनायी देती थी। बांस, पीपल, मदार, बरगद, भोजपत्र, काली हर्रै की बेलों और बेर के वृक्षों से वह वन अत्यन्त घना जान पड़ता था। उस वन से एक अजगर सांप निकला, जो दस योजन लंबा था। वह बारंबार फुफकारता हुआ झुंड-के झुंड हाथियों को निगलने लगा। मिथिलेश्वर ! उस समय सेना में हाहाकार मच गया। उसके प्रचण्ड विष से मिली हुई वायु से विभिन्न दिशाओं की सारी वस्तुएँ भस्म हो जाती थीं। तब भानु, सुभानु, स्वर्भानु, प्रभानु भानुमान, चन्द्रभानु, बृहद्भानु-सत्य भामा के इन दस पुत्रों ने तीखे बाणों से उस भयंकर एवं मदमत्त सर्प को बींधना आरम्भ किया। बाणों से सारे अंग छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण वह पृथ्वी पर गिर पड़ा और सर्प का रूप छोड़कर एक तेजस्वी एवं दीप्तिमान गन्धर्व हो गया। उसने समस्त श्रीकृष्ण–पुत्रों को नमस्कार किया। देवता फूल बरसाने लगे और वह समस्त द्विग्मण्डल को उद्भासित करता हुआ विमान के द्वारा स्वर्गलोक को चला गया । बहुलाश्व ने पूछा- मुने ! यह गन्धर्व कौन था और पहले के किस पाप से सर्प हुआ था, यह बताइये; क्योंकि आप भूत, वर्तमान और भविष्य की बातें जानने वालों में सबसे श्रेष्ठ हैं । श्री नारदजी कहते हैं- राजन् ! आर्ष्टिषेण गन्धर्व का जो सुन्दर भ्राता सुमति था, वह हनुमानजी से रामायण पढ़ने के लिये आया। हनुमानजी हेमकूट पर्वत पर श्रीराम की सेवा में प्रात:काल से लेकर चौदह घड़ी तक लगे रहते थे। वे लक्ष्मण सहित जानकी पति श्रीरामचन्द्रजी का ध्यान कर रहे थे। इसी समय उसने सांप की भाँति फुफकार करके हनुमानजी का ध्यान भंग कर दिया। तब वानरराज महावीर हनुमानजी ने कुपित होकर सुमति को शाप दे दिया- 'दुर्बुद्धे ! तू सर्प हो जा’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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