गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 26
सुमति ने उसी समय उनके चरणों में प्रणाम करके हाथ जोड़कर कहा- 'देव ! आप अपनी शरण में आये हुए मुझ दीन की रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये' ।तब प्रसन्न होकर धर्मज्ञ भगवान हनुमान ने सुमति से कहा- ‘द्वापर के अन्त में भगवान श्रीकृष्ण के पुत्रों के धनुष से छूटे हुए तीखे बाणों द्वारा जब तुम्हारा शरीर विदीर्ण हो जायगा, तब तुम अपने गन्धर्व–शरीर को प्राप्त कर लोगे- इसमें संशय नहीं है। विदेहराज ! वही सुमति नामक गन्धर्व शाप से मुक्त हुआ। सत्पुरुषों को शाप भी वरदान के तुल्य है फिर उनका वरदान मोक्ष देने वाला हो जाय, इसके लिये तो कहना ही क्या है। तदनन्तर श्रीकृष्ण कुमार महाबातु प्रद्युम्न मनोहर चैत्र-देशों को गये, जो वासन्ती और माधवी लताओं से सुशोभित थे। यहाँ भ्रमरों की ध्वनि से शोभा पाने वाले सहस्त्र दल कमलों का पराग सरोवरों में अबीर-चूर्ण की भाँति गिरता था। रास्ते में इलायची और लौंग की लताएं लहलहाती थीं, जो सैनिकों के पांवों से कुचलकर धूल में मिल जाती थीं, जो सैनिकों के पांवों से कुचलकर धूल में मिल जाती थीं। झुंड-के-झुंड भ्रमर हाथियों के कर्णतालों से ताड़ित हो आस-पास मंडराते हुए शोभा पाते थे । राजन् ! वहाँ के पुरुष दस हजार हाथियों के समान बलवान होते हैं। उनके शरीर पर झुर्रियाँ नहीं दिखायी देतीं। उनके बाल नहीं पकते और शरीर में पसीना, थकावट एवं दुर्गन्ध नहीं होती। वहाँ प्रतिदिन त्रेता युग के समान समय रहता है। दिव्य औषधियों तथा नदियों के गुणकारी प्रभाव से वहाँ के लोगों की आयु दस हजार वर्ष की हुआ करती है। वहाँ अमृत के समान जल और स्वर्णमयी भूमि शोभा पाती है। उस भूमि से मोती, मूंगे, वैदूर्य आदि रत्नों की उत्पत्ति होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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