गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 11
तब सहस्र मुख वाले स्वयं प्रकाश शेषनाग अपने फनों से छत्र छाया करके गिरती हुई जल की धाराओं का निवारण करते हुए उनके पीछे-पीछे चलने लगे। उस समय यमुना में जल के वेग से बहने के कारण ऊँची लहरें उठती और भँवरें पड़ रही थी। वे सिंह और सर्पादि जंतुओं को भी बहाये लिये जाती थी; किंतु सरिताओं में श्रेष्ठ उन कलिन्दनन्दिनी यमुना ने वसुदेव जी को तत्काल मार्ग दे दिया। नन्दराय जी का सारा व्रज गाढ़ी नींद में सो रहा था। वहाँ पहुँच कर वसुदेव जी ने अपने परम शिशु को यशोदा जी की शय्या पर शीघ्र सुलाकर उस दिव्य कन्या को देखा। यशोदा जी की उस कन्या को गोद में लेकर वसुदेव जी पुन: अपने घर लौट आये। वे यमुना जी को पार करके पूर्ववत अपने घर में स्थित हो गये। उधर गोपी यशोदा को इतना ही ज्ञात हुआ कि उसे कोई पुत्र या पुत्री हुई है। वे प्रसव वेदना के श्रम से अत्यंत थकी होने के कारण अपनी शय्या पर आनन्द की नींद लेती हुई सो गयी थी। इधर बालक के रोने की आवाज सुनकर पहरेदार राजभवन में उपस्थित हुए और जाकर वीर कंस को बालक के जन्मने की सूचना दी। यह समाचार कान में पड़ते ही कंस भय से कातर हो तुरंत सूतीगृह में जा पहुँचा। उस समय सती-साध्वी बहिन देवकी दीन की तरह रोती हुई भाई से बोलीं। देवकी ने कहा- भैया ! आप दीन-दु:खियों के प्रति स्नेह और दया करने वाले हैं। मैं आपकी बहिन हूँ, तथापि कारागार में डाल दी गयी हूँ। मेरे सभी पुत्र मार डाले गये हैं। मैं वह अभागिनी माँ हूँ, जिसके बेटों का वध कर दिया गया है। एक मात्र यह बेटी बची है, इसे मुझे भीख में दे दीजिये। यह स्त्री है, इसका वध करना आप- जैसे वीर के योग्य नहीं है। कल्याणकारी भाई ! इस कल्याणी कन्या को तो मेरी गोद में दे ही दीजिये। यही आपके योग्य कार्य होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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