गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 15
राधा ने कहा- सखी ! यदि मुझे व्रजभूषण श्यामसुन्दर के चरणाविन्द नहीं प्राप्त हुए तो मैं कदापि अपने शरीर को नहीं धारण करूँगी- यह मेरा निश्चय है। नारद जी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! श्रीराधा की यह बात सुनकर ललिता भय से विह्वल हो, यमुना के मनोहर तट पर श्रीकृष्ण के पास गयी। वे माधवीलता के जाल से आच्छन्न और भ्रमरों की गुंजारों से व्याप्त एकांत प्रदेश में कदम्ब की जड़ के पास अकेले बैठे थे। वहाँ ललिता ने श्री हरि से कहा। ललिता बोलीं- श्यामसुन्दर ! जिस दिन से श्रीराधा ने तुम्हारे अद्भुत मोहनरूप को देखा है, उसी दिन से वह स्तम्भनरूप सात्त्विक भाव के अधीन हो गयी है। काठ की पुतली की भाँति किसी से कुछ बोलती नहीं। अलंकार उसे अग्नि की ज्वाला की भाँति दाहक प्रतीत होते हैं। सुन्दर वस्त्र भाड़ की तपी हुई बालू के समान जान पड़ते है। उसके लिये हर प्रकार की सुगन्ध कड़वी तथा परिचारिकाओं से भरा हुआ भवन भी निर्जन वन हो गया है। हे प्यारे! तुम यह जान लो कि तुम्हारे विरह में मेरी सखी को फूल बाण-सा तथा चन्द्र-बिम्ब विष कन्द-सा प्रतीत होता है। अत: श्रीराधा को तुम शीघ्र दर्शन दो। तुम्हारा दर्शन ही उसके दु:खों को दूर कर सकता है। तुम सबके साक्षी हो। भूतल पर कौन-सी ऐसी बात है, जो तुम्हें विदित न हो। तुम्हीं इस जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हो। यद्यपि परमेश्वर होने के कारण तुम सब लोगों के प्रति समान भाव रखते हो, तथापि अपने भक्तों का भजन करते हो (उनके प्रति अधिक प्रेम-भाव रखते हो)। नारद जी कहते हैं- राजन ! ललिता की यह ललित बात सुनकर व्रज के साक्षात देवता भगवान श्रीकृष्ण मेघ गर्जन के समान गम्भीर वाणी में बोले। श्रीभगवान ने कहा- भामीनि ! मन का सारा भाव स्वत: एक मात्र मुझ परात्पर पुरुषोत्तम की ओर नहीं प्रवाहित होता; अत: सबको अपनी ओर से मेरे प्रति प्रेम ही करना चाहिये। इस भूतल पर प्रेम के समान दूसरा कोई साधन नहीं है (मैं प्रेम से ही सुलभ होता हूँ)। भाण्डीर वन में श्रीराधा के हृदय में जैसे मनोरथ का उदय हुआ था, वह उसी रूप में पूर्ण होगा। सत्पुरुष अहैतुक प्रेम का आश्रय लेते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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