गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 15
राधा बोलीं- पहले उनका मनोहर चित्र बनाकर तुम श्रीघ्र मुझे दिखाओ, उसके बाद मैं उनका दर्शन करूँगी-इसमें संशय नहीं है। नारद जी कहते हैं- तब दोनों सखियों ने नन्दनन्दन का सुन्दर चित्र बनाया, जिसमें नूतन यौवन का माधुर्य भरा था। वह चित्र उन्होंने तुरंत श्रीराधा के हाथ में दिया। वह चित्र देखकर श्रीराधा हर्ष से खिल उठीं और उनके हृदय में श्रीकृष्ण दर्शन की लालसा जाग उठी। हाथ में रखे हुए चित्र को निहारती हुई वे आनन्दमग्न होकर सो गयीं। भवन में सोती हुई श्रीराधा ने स्वप्न में देखा-‘ यमुना के किनारे भाण्डीर वन के एक देश में नीलमेघ की-सी कांतिवाले पीतपटधारी श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण मेरे निकट ही नृत्य कर रहे हैं।’ विदेहराज! उसी समय श्रीराधा की नींद टूट गयी और वे शय्या से उठकर, परमात्मा श्रीकृष्ण के वियोग से विह्वल हो, उन्हीं के कमनीय रूप का चिंतन करती हुई त्रिलोकी को तृणवत् मानने लगीं। इतने में ही व्रजेश श्रीनन्दनन्दन अपने भवन से चलकर वृषभानुनगर की सँकरी गली में आ गये। सखी ने तत्काल खिड़की के पास आकर श्रीराधा को उनका दर्शन कराया। उन्हें देखते ही सुन्दरी श्रीराधा मूर्च्छित हो गयीं। लीला से मानव-शरीर धारण करने वाले माधव श्रीकृष्ण भी सुन्दर रूप और वैदग्धय से युक्त गुणनिधि श्रीवृषभानु नन्दिनी का दर्शन करके मन-ही-मन उनके साथ विहार की अत्यधिक कामना करते हुए अपने भवन को लौटे। वृषभानु नन्दिनी श्रीराधा को इस प्रकार श्रीकृष्ण-वियोग से विह्वल तथा अतिशय कामज्वर से संतप्तचित्त देखकर सखियों में श्रेष्ठ ललिता ने उनसे इस प्रकार कहा। ललिता ने पूछा- राधे ! तुम क्यों इतनी विह्वल, मूर्च्छित (बेसुध) और अत्यन्त व्यथित हो ? सुन्दरी ! यदि श्री हरि को प्राप्त करना चाहती हो तो उनके प्रति अपना स्नेह दृढ़ करो। वे इस समय त्रिलोकी के भी सम्पूर्ण सुख पर अधिकार किये बैठे हैं। शुभे ! वे ही दु:खाग्नि की ज्वाला को बुझा सकते हैं। उनकी उपेक्षा पैरों से ठुकरायी हुई कुम्हार के आँवें की अग्नि के समान दाहक होगी। नारद जी कहते हैं- राजन ! ललिता की यह ललित बात सुनकर व्रजेश्वरी श्रीराधा ने आँखें खोलीं और अपनी उस प्रिय सखी से वे गद्गद वाणी में यों बोलीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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