गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 15
संत, महात्मा उस निर्हेतुक प्रेम का निश्चय ही निर्गुण (तीनों गुणों से अतीत) मानते हैं। जो मुझ केशव में और श्रीराधिका में थोड़ा-सा भी भेद नहीं देखते, बल्कि दूध और उसकी शुक्लता के समान हम दोनों को सर्वथा अभिन्न मानते हैं, उन्हीं के अंत:करण में अहैतुकी भक्ति के लक्षण प्रकट होते हैं तथा वे ही मेरे ब्रह्मपद (गोलोकधाम) में प्रवेश पाते हैं। रम्भोरू ! इस भूतल पर जो कुबुद्धि मानव मुझ केशव हरि में तथा श्रीराधिका में भेदभाव रखते हैं, वे जब तक चन्द्रमा और सूर्य की सत्ता है, तब तक निश्च्य ही कालसूत्र नामक नरक में पड़कर दु:ख भोगते हैं[1] नारद जी कहते हैं- राजन ! श्रीकृष्ण की यह सारी बात सुनकर ललिता सखी उन्हें प्रणाम करके श्रीराधा के पास गयी और एकांत में बोली। बोलते समय उसके मुख पर हास की छटा छा रही थी। ललिता ने कहा- सखी! जैसे तुम श्रीकृष्ण को चाहती हो, उसी तरह वे मधुसूदन श्रीकृष्ण भी तुम्हारी अभिलाषा रखते हैं। तुम दोनों का तेज भेद-भाव से रहित, एक है। लोग अज्ञानवश ही उसे दो मानते हैं। तथापि सती-साध्वी देवि ! तुम श्रीकृष्ण के लिये निष्काम कर्म करो, जिससे पराभक्ति के द्वारा तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो।[2] नारद जी कहते हैं- नरेश्वर ! ललिता सखी की यह बात सुनकर रासेश्वरी श्रीराधा ने सम्पूर्ण धर्म-वेत्ताओं में श्रेष्ठ चन्द्रानना सखी से कहा। श्रीराधा बोलीं- सखी ! तुम श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये किसी देवता की ऐसी पूजा बताओ, जो परम सौभाग्यवर्द्धक, महान पुण्यजनक तथा मनोवांछित वस्तु देने वाली हो। भद्रे ! महामते ! तुमने गर्गाचार्य जी के मुख से शास्त्र चर्चा सुनी है। इसलिये तुम मुझे कोई व्रत या पूजन बताओ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीभगवानुवाच- सर्वं हि भावं मनस: परात्परं न ह्येकतो भामिनि जायते तत:। प्रेमैव कर्तव्यमतो मयि स्वत: प्रेम्णा समानं भुवि नास्ति किंचित् ।। यथा हि भाण्डीरवने मनोरथो बभूव तस्या हि तथा भविष्यति। अहैतुकं प्रेम च सदभिराश्रितं तच्चापि सन्त: किल निर्गुणं विदु ।। ये राधिकायां मयि केशवे मनाग् भेदं न पश्यन्ति हि दुग्धशौवल्यवत्। त एव मे ब्रह्मपदं प्रयान्ति तद्धयहैतुकस्फूर्जितभक्तिलक्षणा:।। ये राधिकायां मयि केशवे हरौ कुर्वन्ति भेदं कुधियो जना भुवि। ते कालसूत्रे प्रपतन्ति दु:खिता रम्भोरु यावत्किल चन्द्रभास्करौ ।। (गर्ग0 वृन्दावन0 15। 30-33)
- ↑ ललितोवाच-
त्वमिच्छसि यथा कृष्णं तथा त्वां मधुसूदन:। युवयोर्भेदरहितं तेजस्त्वेकं द्विधा जनै: ।।
तथापि देवि कृष्णाय कर्म निष्कारणं कुरु। येन ते वांछितं भूयाद् भक्त्या परमया सति ।।
(गर्ग0 वृन्दावन0 15। 35-36)
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