गर्ग संहिता
द्वारका खण्ड : अध्याय 22
इतना कहकर श्रीहरि ने एक मुटृटी चिउड़े चबाकर सारी पृथ्वी की सम्पत्ति सुदामा को दे दी और दूसरी मुट्टी खाकर ज्यों ही पाताल की सम्पत्ति देने को तैयार हुए, वक्ष:स्थल निवासिनी लक्ष्मीदेवी ने उसी क्षण हाथ पकड़कर कहा- ‘’नाथ ! बिना अपराध आप मेरा त्याग क्यों कर रहे हैं ? श्रीकृष्ण ! आपने जो कुछ दिया है, वही पर्याप्त है। उसी से यह ब्राह्मण इन्द्र के समान हो जायँगे। इधर ब्राह्मण को इस दान का कुछ पता नहीं लगा। भगवान की माया ने सारी सम्पत्ति को उनके घर पहुँचा दिया। सुदामाजी ने एक रात वहाँ सुखपूर्वक रहकर, भोजन-पान आदि करके, दूसरे दिन श्रीकृष्ण को नमस्कार करके घर जाने की अनुमति मांगी। भगवान ऐसा अनुमति देकर वन्दन और आलिंगन किया। ब्राह्मण लज्जावश कुछ भी न मांगकर घर लौट चले और एक ब्राह्मण के प्रति श्रीकृष्ण की श्रद्धा देखकर मन-ही-मन सोचने लगे-’दरिद्र होने पर भी श्रीकृष्ण मुझे अपनी दोनों भुजाओं में भरकर मेरा आलिंगन किया। मेरे सरीखे दरिद्र ब्राह्मण को पर्यंक पर बैठाकर भाई के समान आदर दिया। रुक्मिणी–सत्याभामा ने व्यंजन के द्वारा मेरी सेवा की। मैं निर्धन धन पाकर रमापति भगवान को भूल न जाऊँ- इसी से करुणावश उन्होनें मुझे धन नहीं दिया’। वे इस प्रकार विचारते हुए, पत्नी का स्मरण करते हुए सोचने लगे- ‘मैं घर जाकर कह दूँगा’ यह लो, कोटि-कोटि धनराशि ग्रहण करो। ‘श्रीकृष्ण ब्रह्मण्यदेव हैं, दाता हैं, पर तुम्हारे लिये तो कृष्ण ही रहे। दूसरे के घर को रत्नों से भरा देखकर कोई कामना नहीं करनी चाहिये। ललाट में जो कुछ विधि ने लिखा है, उससे अन्यथा नहीं होता। [1]मन-ही-मन यों कहते हुए सुदामाजी अपनी पुरी में आ पहुँचे। पुरी को देखकर वे चकित हो गये। बड़े-बड़े़ दरवाजे, ध्वजाओं से सुशेभित सोने के किले और महल खडे़ हैं। विचित्र तोरण और कलशों से वह सुशोभित है। नगरी सज्जनों से भरी और उसमें इतने रत्न हैं कि दूसरी द्वारकापुरी की-सी ही शोभा हो रही है। ब्राह्मण ने कहा- ’यह क्या ? यह किसका स्थान है ? वे रास्ते चलते रहे। नगर के नर-नारियों ने उन्हें साथ ले चलना चाहा; पर वे गये नहीं। यह देखकर दास-दासियों ने अपनी स्वामिनी (सुदामा की पत्नी) के पास जाकर सुदामाजी के आने की बात कही। उनको बड़ा आनन्द हुआ और वे साक्षात लक्ष्मीरुपा ब्राह्मणी बडे़ सम्मान के साथ पति के स्वागत के लिये शिविका पर सवार होकर दास-दासियों के साथ घर से निकलीं। सुदामा इधर-उधर घूम रहे थे। पत्नी ने अपना मुख दिखाकर उन्हें विश्वास कराया। सुदामाजी स्वर्ण-रत्नादि से विभूषित, प्रभा और रूप से सम्पन्न, विमानवासिनी दूसरी लक्ष्मी की तरह अपनी तरुणी भर्या को देखकर बडे़ प्रसन्न हुए और उन्होंने समझा- ‘यह सब श्रीकृष्ण की ही कृपा है’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रत्नै: प्रपूरितान् गेहान् दृष्टा वाञ्छां न कारयेत्। ललाटे लिखितं यद् यन्न तन्नूनं भविष्यति।। (गर्ग0 द्वारका0 22। 64)
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