गर्ग संहिता
द्वारका खण्ड : अध्याय 9
नारदजी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! उनके यों कहने पर दूसरों को मान देने वाले आनर्त ने राजा से कहा- ‘जहाँ तक पृथ्वी पर आपका राज्य है, वहाँ तक मेरा निवास नहीं होगा ?। पिता राजा शर्याति द्वारा निकाले गये आनर्त उनसे विदा ले समुद्र के तट पर चले गये और समुद्र की वेला में पहुँचकर दस हजार वर्षों तपस्या करते रहे आनर्त की प्रेमलक्षणा- भक्ति से प्रसन्न हो भगवान श्रीहरि ने उन्हें अपने स्वरूप का दर्शन कराया और वर मांगने के लिये कहा। आनर्त दोनों हाथ जोड़कर शीघ्रतापूर्वक उठे और रोमांचयुक्त तथा प्रेम से विह्वल हो उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण चरणारविन्दों में प्रणाम किया । आनर्त बोले- सबके हृदय में वास करने वाले आप वासुदेव को नमस्कार है। आकर्षण-शक्ति के अधिष्ठाता देवता आप संकर्षण को नमस्कार है। कामावतार प्रद्युम्न और ब्रह्मावतार अनिरुद्ध को भी नमस्कार है। भगवन् ! आप साधु-संतों के प्रतिपालक हैं, आपको बारंबार नमस्कार है। देव ! मेरे पिता ने मुझे राज्य से बाहर निकाल दिया है, अत: मैं आपकी शरण में आया हूँ। मुझे दूसरी कोई भूमि दीजिये, जहाँ मेरा निवास हो सके। ध्रुव भी जिनके कृपा प्रसाद से सर्वोत्तम पद को प्राप्त हुए, प्रणतजनों का क्लेश दूर करने वाले उन भगवान को मेरा नमस्कार है[1]। श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! आनर्त को आनत एवं दीन जानकर दीनवत्सल भगवान प्रसन्न हो मेघ के समान गम्भीर वाणी में श्रीमुख से कहा। श्रीभगवान बोले- नरेश्वर ! इस लोक में दूसरी कोई पृथ्वी तो है नहीं, फिर मैं क्या करुँ ? परंतप ! तुम्हारी भक्ति से मैं संतुष्ट हूँ, अत: अपनी बात सत्य करने के लिये तुम्हें अपने दिव्यलोक वैकुण्ठधाम का सौ योजन लंबा-चौड़ा भूखण्ड लाकर देता हूँ। वह अत्यन्त निर्मल तथा शुभद है। श्रीनारदजी कहते हैं- विदेहराज ! आनर्त-नरेश से यों कहकर भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण ने वैकुण्ठ से सौ योजन विशाल भूखण्ड उखाड़ मँगाया रऔ भयंकर शब्द करने वाले समुद्र में सुदर्शन चक्र की नींव बनाकर उसी के ऊपर भूखण्ड को स्थापित किया। राजा आनर्त ने एक लाख वर्षों तक पुत्र-पौत्रों से सम्पन्न हो वहाँ राज्य किया। उस राज्य में वैकुण्ठ का वैभव भरा हुआ था। तब उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। आतर्न के प्रसाद से ही ‘आनर्त’ नामक देश प्रकट हुआ। पूर्वकाल में श्रीशैल नामक पर्वत का एक पुत्र था। आनर्त ने उसे अपने हाथों से उखाड़कर आनर्त देश में स्थापित किया। ‘रैवतक’ नाम से विख्यात हुआ। राजा रेवत कुशस्थलीपुरी का निर्माण कराके वहाँ दीर्घकाल तक राज्य करने के पश्चात अपनी कन्या रेवती को साथ ले ब्रह्मलोक में गये, यह सब कथा मेरे द्वारा बलदेव-विवाह के प्रसंग में कही जा चुकी है। इसी कारण पुण्यमयी द्वारकापुरी को देवताओं ने ‘मोक्ष का द्वार’ माना है। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में द्वारका खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में 'द्वारकापुरी के पृथ्वी पर आने का कारण’ नामक नवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।10।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आनर्त उवाच- नमस्ते वासुदेवाय नम: संकर्षणाय च। प्रद्युम्नायानिरुद्धाय सात्वतां पतये नम: ।। ध्रुवोऽपि यत्प्रसादेन ययौ सर्वोत्तमं पदम्। तस्मै नमो भगवते प्रणतक्लेशहारिणे ।।गर्ग0 द्वारका0 9। 22, 24
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