गर्ग संहिता
द्वारका खण्ड : अध्याय 2
राजन् ! तुम्हारे मन में जो कुछ हो, उसको वरदान के रूप में माँग लो। तब राजेन्द्र मुचुकुन्द ने देवताओं को प्रणाम करेक उनसे कहा– मैं अच्छी तरह सोना चाहता हैूं। सोकर उठने पर मुझे साक्षात श्रीहरि का दर्शन हो। जो हतचेतन पुरुष बीच में मुझे जगा दे, वह मेरी दृष्टि पड़ते ही तत्काल भस्म हो जाय। देवताओं ने ‘तथास्तु’ कहकर उन्हें उनका अभिलाषित वर दे दिया। तब राजा मुचुकुन्दन ने पूर्वकाल के सत्यु्ग में शयन किया। भगवान के पीछे-पीछे कालयवन ने भी उस गुफा में प्रवेश किया और मुचुकुन्दन को पीताम्बर ओढ़कर सोया हुआ श्रीकृष्ण ही समझकर क्रोध से भरे हुए उस महादुष्ट यवन ने तुरंत ही उनके ऊपर लात से प्रहर किया। मुचुकुन्द सहसा उठ बैठे और उन्होंने धीरे-धीरे आंखे खोलकर चारों ओर दृष्टिपात किया। उस समय कालयवन उन्हें पास ही खड़ा दिखायी दिया। मैथिल ! रोष से भरे हुए नरेश की दृष्टि पड़ते ही कालयवन अपने ही देह से उत्पन्न आग की ज्वाला से उसी क्षण जलकर भस्म हो गया। यवन के भस्मीभूत हो जाने पर साक्षात परिपूर्णतम दर्शन कराया। करोड़ों सूर्यों के समान जाज्वल्यमान किरीट, कानों में कुण्डल, बांहों में अंगद और पैरों में नूपुर उदीप्त हो रहे थे। उनके वक्ष:स्थल में श्रीवत्स का चिन्ह सुशोभित था। वे चार भुजाओं से सम्पन्न थे। उनके नेत्र प्रफुल्ल कमल के समान विशाल थे और ग्रीवा में वनमाला लटक रही थी। वे अपने लावण्य से करोड़ों कामदेवों की लज्जित कर रहे थे। उनकी कान्ति काले मेघ के समान श्याम थी। उन्हें देखकर राजा हर्ष से उल्लसित हो उठकर खड़े हो गये और हाथ जोड़कर उन्हें परिपूर्णता भगवान जानकर भक्तिभाव से प्रणाम किया। मुचुकुन्द ने कहा– जो वसुदेव पुत्र और सच्चिदानन्द स्वरूप होते हुए भी श्रीनन्दगोप के कुमार हैं उन सच्चिदानन्द स्वरूप गोविन्द को बारंबार नमस्कार हैं। जिनकी नाभि से ब्रह्माण्ड कमल की उत्पति हुई है, जो कमल की माला से अलंकृत हैं, जिनके नेत्र प्रफुल्ल कमलदल के समान विशाल हैं तथा चरण भी अपनी शोभा से कमलों को तिरस्कृत करते हैं, उन भगवान को बारंबार नमस्कार है। शुद्ध-बुद्ध परब्रह्मा परमात्मा करने वाले गोविन्द को बारंबार नमस्कार है। जिनकी सहस्त्रोंचरण, नेत्र, मस्तक, उरु और भुजा धारण करने वाले हैं, जिनके सहस्त्रों नाम हैं तथा जो सहस्त्रा कोटि युगों को धारण करने वाले हैं, उन सनातन पुरुष भगवान श्रीकृष्ण को नमस्कार है। हरे ! इस भूतल पर मरे समान कोई पात की नहीं है और आपके समान पापहारी भी दूसरा कोई नहीं है– यह जानकर जगन्नाथ देव ! आपकी जैसी इच्छा हो, वैसी ही कृपा मेरे ऊपर कीजिये।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मुचुकुन्द उचाव
कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च ।
नन्दगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नम:॥
नम: पंकजनाभाय नम: पंकजमालिने। नम: पंकजनेत्राय नमस्ते पंकजाङघ्रये।।
नम: कृष्णाय शुद्धाय ब्रह्मणे परमात्मने। प्रणतक्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नम:।।
नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्त्रमूर्तये सहस्त्रपादाक्षिरोरुबाहवे। सहस्त्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते सहस्त्रकोटीयुगधारिणे नम:।।
हरे मत्सम: पातकी नास्ति भूमौ तथा त्वत्समोनास्ति पापापहारी। इति त्वं च मत्वा जगन्नाथ देव यथेच्छा भवेत्ते तथा मां कुरु त्वम्।।
(गर्ग0 द्वारका0 2। 26-30)
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