गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 7
अब बाणासुर को युद्ध के लिये उद्यत हुआ देख भगवान शंकर स्वयं वहाँ आ गये और सबको समझा-बुझाकर युद्ध से रोक दिया। फिर उन्होंने बलिनन्दन बाण से कहा- ‘दैत्यराज ! भगवान श्रीकृष्ण को छोड़कर भूतल पर दूसरा कोई ऐसा वीर नहीं है, जो युद्ध में इसे जीत सकेगा। परशुरामजी ने इसे ऐसा ही वर दिया है और अपना वैष्णव धनुष भी अर्पित कर दिया है। श्रीनारदजी कहते हैं- राजन ! यों कहकर साक्षात महेश्वर शिव ने कंस और बाणासुर में तत्काल बड़ी शांति के साथ मनोरम सौहार्द स्थापित कर दिया। तदनन्तर पश्चिम दिशा में महासुर वत्स का नाम सुनकर कंस वहाँ गया। उस दैत्यराज ने बछड़े का रूप धारण करके कंस के साथ युद्ध छेड़ दिया। कंस ने उस बछड़े की पूँछ पकड़ ली और उसे पृथ्वी पर दे मारा। इसके बाद उसके निवासभूत पर्वत को अपने अधिकार में करके कंस ने म्लेच्छ देशों पर धावा किया। मेरे मुख से महाबली दैत्य कंस के आक्रमण का समाचार सुनकर कालयवन उसका सामना करने के लिये निकला। उसकी दाढ़ी-मूँछ का रंग लाल था और उसने हाथ में गदा ले रखी थी। कंस ने भी लाख भार लोहे की बनी हुई अपनी गदा लेकर यवनराज पर चलायी और सिंह के समान गर्जना की। उस समय कंस और कालयवन में बड़ा भयानक गदा-युद्ध हुआ। दोनों की गदाओं से आग की चिनगारियाँ बरस रही थी। वे दोनों गदाएँ परस्पर टकराकर चूर-चूर हो गयीं। तब कंस ने कालयवन को पकड़कर उसे धरती पर दे मारा और पुन: उठाकर उसे पटक दिया। इस तरह उसने उस यवन को मृतक तुल्य बना दिया। यह देख कालयवन की सेना कंस पर बाणों की वर्षा करने लगी। तब बलवान दैत्यराज कंस ने गदा की मार से उस सेना का कचूमर निकाल दिया। बहुत-से हाथियों, घोड़ों, उत्तम रथों और वीरों को धराशायी करके गदा-युद्ध करने वाला वीर कंस समरांगण में मेघ के समान गर्जना करने लगा। फिर तो सारे म्लेच्छ सैनिक रणभूमि छोड़कर भाग निकले। कंस बड़ा नीतिज्ञ था; उसने भयभीत होकर भागते हुए म्लेच्छों पर आघात नहीं किया। कंस के पैर ऊँचे थे, दोनों घुटने बड़े थे, जाँघें खंभों के समान जान पड़ती थी। उसका कटिप्रदेश पतला, वक्ष:स्थल किवाड़ों के समान चौड़ा और कन्धे मोटे थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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