गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 2
सन्नन्द जी कहते हैं- पुलस्त्य जी की यह बात सुनकर पुत्र-स्नेह से विह्वल हुए द्रोणाचल के नेत्रों में आँसू भर आये। उसने पुलस्त्य मुनि से कहा । द्रोणाचल बोला-महामुने! मैं पुत्र-स्नेह से आकुल हूँ। यह पुत्र मुझे अत्यंत प्रिय है, तथापि आपके शाप से भय से भीत होकर मैं इसे आपके हाथों में देता हूँ। (फिर वह पुत्र से बोला-) बेटा ! तुम मुनि के साथ कल्याणमय कर्मक्षेत्र भारतवर्ष में जाओ। वहाँ मनुष्य सत्कर्मों द्वारा धर्म, अर्थ और काम-त्रिवर्ग सुख प्राप्त करते हैं तथा (निष्काम कर्म एवं ज्ञानयोग द्वारा) क्षण भर में मोक्ष भी पा लेते हैं । गोवर्धन ने कहा- मुने ! मेरा शरीर आठ योजन लंबा, दो योजन ऊँचा और पाँच योजन चौड़ा है। ऐसी दशा में आप किस प्रकार मुझे ले चलेंगे। पुलस्त्य जी बोले- बेटा ! तुम मेरे हाथ पर बैठकर सुखपूर्वक चले चलो। जब तक काशी नहीं आ जाती, तब तक मैं तुम्हें हाथ पर ही ढ़ोये चलूँगा। गोवर्धन ने कहा- मुने! मेरी एक प्रतिज्ञा है। आप जहाँ-कहीं भी भूमि पर एक बार रख देंगे, वहाँ की भूमि से मैं पुन: उत्थान नहीं करूँगा । पुलस्त्य जी बोले- मैं इस शाल्मली द्वीप से लेकर भारतवर्ष के कोसल देश तक तुम्हें कहीं भी रास्ते में नहीं रखूँगा, यह मेरी प्रतिज्ञा है। सन्नन्द जी कहते हैं- नन्दराज ! तदनंतर वह महान पर्वत पिता को प्रणाम करके मुनि की हथेली पर आरूढ़ हुआ। उस समय उसके नेत्रों में आँसू भर आये। उसे दाहिने हाथ पर रख कर पुलस्त्य मुनि लोगों को अपना तेज दिखाते हुए धीरे-धीरे चले और व्रज-मण्डल में आ पहुँचे। गोवर्धन पर्वत को अपने पूर्व-जन्म की बातों का स्मरण था। व्रज में आने पर उसने मार्ग में मन ही मन सोचा- ‘यहाँ व्रज में असंख्य ब्रह्माण्ड नायक साक्षात परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण अवतार लेंगे और ग्वाल बालों के साथ बाल लीला तथा कैशोर लीला करेंगे। इतना ही नहीं, वे श्री हरि यहाँ दान लीला और मान लीला भी करेंगे। अत: मुझे यहाँ से अन्यत्र नहीं जाना चाहिये। यह व्रज भूमि और यह यमुना नदी गोलोक से यहाँ आयी है। श्री राधा के साथ भगवान श्रीकृष्ण का भी यहाँ शुभागमन होगा। उनका उत्तम दर्शन पाकर मैं कृतकृत्य हो जाऊँगा।’ मन ही मन ऐसा विचार करके गोवर्धन ने मुनि की हथेली पर अपने शरीर का भार बहुत अधिक बढ़ा लिया। उस समय मुनि अत्यंत थक गये। उन्हें पहले की कही हुई बात की याद नहीं रही। उन्होंने पर्वत को हाथ से उतारकर व्रजमण्डल में रख दिया। भार से पीड़ित तो वे थे ही, लघुशंका से निवृत होने के लिये चले गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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