गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 2
शौच-क्रिया करके जल में स्नान करने के पश्चात् मुनिवर पुलस्त्य ने उत्तम पर्वत गोवर्धन से कहा- ‘अब उठो।’ अधिक भार से सम्पन्न होने के कारण जब वह दोनों हाथों से नहीं उठा, तब महामुनि पुलस्त्य ने उसे अपने तेज और बल से उठा लेने का उपक्रम किया। मुनि ने स्नेह से भीगी वाणी द्वारा द्रोण नन्दन गिरिराज को ग्रहण करने का सम्पूर्ण शक्ति से प्रयास किया, किंतु वह एक अंगुल भी टस-से-मस न हुआ। तब पुलस्त्य जी बोले-गिरिश्रेष्ठ ! चलो, चलो ! भार अधिक न बढ़ाओ, न बढ़ाओ। मैं जान गया, तुम रूठे हुए हो। शीघ्र बताओ, तुम्हारा क्या अभिप्राय है ? सन्नन्दजी कहते हैं- यह उत्तर सुनकर मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्य की सारी इन्द्रियाँ क्रोध से चंचल हो उठीं। उनके ओष्ठ फड़कने लगे। अपना सारा उद्यम व्यर्थ हो जाने के कारण उन्होंने द्रोणपुत्र को शाप दे दिया । पुलस्त्य जी बोले- पर्वत ! तू बड़ा ढीठ है। तूने मेरा मनोरथ पूर्ण नहीं किया। इसलिये तू प्रतिदिन तिल-तिलभर क्षीण होता चला जा । सन्नन्द जी कहते हैं- नन्द ! यों कहकर पुलस्त्य मुनि काशी चले गये। उसी दिन से यह गोवर्धन पर्वत प्रतिदिन तिल-तिल करके क्षीण होता चला जा रहा है। जब तक भागीरथी गंगा और गोवर्धन पर्वत इस भूतल पर विद्यमान हैं, तब तक कलिका प्रभाव कदापि नहीं बढ़ेगा। गोवर्धन का यह प्रकट चरित्र परम पवित्र और मनुष्यों के बड़े-बड़े पापों का नाश करने वाला है। यह प्रसंग मैंने तुम्हारे सामने कहा है, जो भूमण्डल में रुचिर और अद्भुत है। यह उत्तम मोक्ष प्रदान करने वाला है, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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