गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 13
श्रीकृष्ण की आज्ञा से उद्धव का व्रज में जाना और श्रीदामा आदि सखाओं का उनसे श्रीकृष्ण विरह के दु:ख का निवेदन बहुलाश्व ने पूछा– मुनिश्रेष्ठ ! अपने कुटुम्बीजनों तथा जाति-भाईयों को मथुरापुरी में निवास देकर यदुकुल तिलक श्रीकृष्ण ने आगे चलकर कौन-कौन-सा कार्य किया ? । नारदजी ने कहा– राजन् ! साक्षात परिपूर्णतम भगवान भक्तवत्सल श्रीकृष्ण ने गोपी और गोपगणों से भरे हुए दीन-दु:खी गोकुल का स्मरण किया। अत: एक दिन एकान्त में अपने सखा भक्त उद्धव को बुलाकर भगवान ने प्रेमगदद वाणी में कहा । श्रीभगवान बोले– हे सखे ! लता-कुंजो के समुदाय आदि से अलंकृत सुन्दर व्रजमण्डल में शीघ्र ही जाओ। गोवर्धन और यमुना की शोभा से मनोहर वृन्दावन में तथा गोप-गोपियों से भरे हुए गोकुल में भी पधारो। मित्र ! मेरा एकपत्र तो नन्दबाबा को देना और दूसरा यशोदा मैया के हाथ में देना। सखे ! तीसरा पत्र श्रीराधिका को उनके सुन्दर मन्दिर में जाकर देना और चौथा मेरे सखा ग्वालबालों को मेरा शुभ कुशल-समाचार निवेदन करते हुए देना। इसी प्रकार अत्यन्त मोहित हु गोपांग्नाओं के सैकड़ों यूथों को पृथक-पृथक पत्र देने हैं। मेरे पिता नन्दराज बड़े दयालु हैं। उनका मन मुझे में ही लगा रहता है और मेरी मैया यशोदा शीघ्र ही अपने पास बुलाने के लिये मेरा स्मरण करती हैं। तुम तो नीतिशास्त्र के विद्वान हो, सुन्दर-सुन्दर बातें सुनाकर उन दोनों के हृदय में मेरी परम प्रीति धारण कराना। मेरी प्राणवटल्लभा राधिका मेरे वियोग से आतुर है और बिना मोहवश सारे जगत को सूना समझती है। उन सबको मेरे वियोग के कारण जो मानसिक व्यथा हो रही है, उसे मेरे संदेश-वचनों द्वारा शांत करो, क्योंकि तुम बातचीत करने में बड़े कुशल हो। सुदामा आदि ग्वाल-बाल मेरे प्रिय सखा हैं। मुझ अपने मित्र के बिना वे भी मोह से आतुर हैं, तुम उन्हें भी मित्र की तरह सुख देना। मैं थोडे़ ही समय में व्रजधाम आउँगा। गोपांग्नाएँ मेरे वियोग की व्यथा के वेग से व्याकुल हैं। उनका मन मुझमें ही लगा हुआ है। उनके शरीर और प्राण भी मुझमें ही स्थित हैं। मन्त्रि-प्रवर ! जिन्होंने मेरे लिये अपने लोक-परलोक सब त्याग दिये है, उन अबलाओं का भरण-पोषण मैं स्वत: कैसे नहीं करूँगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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