गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 17
श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! यह सुनकर माया से युवती के वेष धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने कमलनयनी राधा से इस प्रकार कहा । श्री भगवान बोले- रम्भोरू ! नन्दनगर गोकुल में नन्द भवन से उत्तर दिशा में मेरा निवास है। मेरा नाम ‘गोपदेवी’ है। मैंने ललिता के मुख से तुम्हारी रूप माधुरी और गुण-माधुरी का वर्णन सुना है, अत: हे चंचल लोचनों वाली सुन्दरी ! मैं तुम्हें देखने के लिये यहाँ तुम्हारे घर में चली आयी हूँ। कमललोचने ! जहाँ ललित लवंगलता की सुस्पष्ट सुगन्ध छा रही है, जहाँ के गुंजा-निकुंज में मधुपों की मधुर ध्वनि से युक्त कंजपुष्प खिल रहे हैं, वह श्रुति पथ में आया हुआ तुम्हारा नित्य-नूतन दिव्य नगर आज अपनी आँखों देख लिया। इसके समान सुन्दर तो देवराज इन्द्र की पुरी अमरावती भी नहीं होगी। श्री नारद जी कहते हैं- मिथिलेश्वर ! इस प्रकार दोनों प्रिया-प्रियतम का मिलन हुआ। वे परस्पर प्रीति का परिचय देते हुए वहाँ उपवन में शोभा पाने लने। पुष्पमय कन्दुक (गेंद) के खेल खेलते हुए वे दोनों हँसते और गीत गाते थे। वन के वृक्षों को देखते हुए वे इधर-उधर विचरने लगे। राजन ! कला-कौशल से सम्पन्न कमललोचना राधा को सम्बोधित करके गोपदेवी ने मधुर वाणी से कहा । गोपदेवी बोली-व्रजेश्वरी! नन्द नगर यहाँ से दूर है और संध्या हो गयी है, अत: जाती हूँ। कल प्रात:काल तुम्हारे पास आऊँगी, इसमे संशय नहीं है। श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! गोपदेवी की यह बात सुनकर व्रजेश्वरी श्रीराधा के नयनों से तत्काल आँसुओं की धारा बह चली। वे रोमांच तथा हर्षोद्रम के भाव से आवृत हो कटे हुए कदली वृक्ष की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ी। यह देख वहाँ सखियाँ सशंक हो गयी और तरंत व्यजंन लेकर, पास खड़ी हो, हवा करने लगीं। उनके वस्त्रों पर चन्दन-पुष्पों के इत्र छिड़के गये। उस समय गोपदेवी ने श्रीराधा से कहा। गोपदेवी बोली- राधिके ! मैं प्रात:काल अवश्य आऊँगी तुम चिंता न करो। यदि ऐसा न हो तो मुझे गाय, गोरस और अपने भाई की सौगन्ध है। नारद जी कहते हैं- नृपेश्वर ! यों कहकर माया से युवती का वेष धारण करने वाले श्रीहरि राधा को धीरज बँधाकर श्रीनन्द गोकुल (नन्द गाँव) में चले गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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