गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 17
नृपेश्वर! उस उपवन में मधु पीकर मतवाले हुए भौंरे टूट पड़ते थे। वहाँ शीतल मन्द-सुगन्ध वायु चल रही थी, जो सहस्रदल कमलों के पराग को बारंबार बिखेरा करती थी। उस उद्यान में निकुंज शिखरों पर बैठे हुए नर-कोकिल, मादा-कोकिल, मोर, सारस और शुक पक्षी मीठी आवाज में कूज रहे थे। वहाँ फूलों की सहस्रों शय्याएँ सज्जित थीं और पानी की हजारों नहरें बह रही थीं। वहाँ के मेघ मन्दिर में सैकड़ों फुहारे छूट रहे थे। बाल सूर्य के समान कांतिमान कुण्डल तथा विचित्र वर्ण वाले वस्त्र धारण किये करोड़ों सुन्दर मुखी सखियाँ वहाँ श्रीराधा के सेवा-कार्य में अपने कुशलता का परिचय देती थीं। उनके बीच में श्रीराधिका रानी उस राजमन्दिर में टहल रही थी। वह राजमन्दिर केसरिया रंग के सूक्ष्म वस्त्रों से सजाया गया था। वहाँ की भूमि पर पर्वतीय पुष्प, जलज पुष्प तथा स्थल पर होने वाले बहुत-से पुष्प और कोमल पल्लव इतनी अधिक संख्या में बिछाये गये थे कि वहाँ पाँव रखने पर गुल्फ (घुट्टी) तक का भाग ढक जाता था। मालती के मकरन्दों की बूँदें वहाँ झरती रहती थीं। ऐसे आँगन में करोड़ों चन्द्रों के समान कांतिमती, कोमलांगी एवं कृशांगी श्रीराधा धीरे-धीरे अपने कोमल चरणाविन्दों का संचालन करती हुई घूम रही थी। मणि-मन्दिर के आँगन में आयी हुई उस नवीना गोप-सुन्दरी को वृषभानु नन्दिनी श्रीराधा ने देखा। उसके तेज से वहाँ की समस्त ललनाएँ हतप्रभ हो गयीं, जैसे चन्द्रमा के उदय होने से ताराओं की कांति फीकी पड़ जाती है। उसके उत्तम एवं महान गौरव का अनुभव करके श्रीराधा ने अभ्युत्थान दिया (अगवानी की) और दोनों बाँहों से उसका गाढ़ आलिंगन करके उसे दिव्य सिंहासन पर बिठाया। फिर लोकरीति के अनुसार जल आदि उपचार अर्पित करके उसका सुन्दर पूजन (आदर-सत्कार) आरम्भ किया। श्रीराधा बोलीं- सुन्दरी सखी ! तुम्हारा स्वागत है। मुझे शीघ्र ही अपना नाम बताओ। तुम स्वत: आज यहाँ आ गयीं, यह मेरे लिये ही महान सौभाग्य की बात है। इस भूतल पर तुम्हारे समान दिव्य रूप का कहीं दर्शन नहीं होता। शुभ्र ! जहाँ तुम-जैसी सुन्दरी निवास करती हैं, वह नगर निश्चय ही धन्य है। देवि ! अपने आगमन का कारण विस्तार पूर्वक बताओ। मेरे योग्य जो कार्य हो, वह तुम्हें अवश्य कहना चाहिये। तुम अपनी बाँकी चितवन, सुन्दर दीप्ति, मधुर वाणी, मनोहर मुसकान, चाल-ढ़ाल और आकृति से इस समय मुझे श्रीपति के सदृश दिखायी देती हो। शुभे! तुम प्रतिदिन मुझसे मिलने के लिये आया करो। यदि न आ सको तो मुझे ही अपने निवास स्थान का संकेत प्रदान करो। जिस विधि से हमारा तुम्हारे साथ मिलना सम्भव हो, वह विधि तुम्हें सदा उपयोग में लानी चाहिये। हे सखी ! तुम्हारा यह शरीर मुझे बहुत प्यारा लगता है; क्योंकि मेरे प्रियतम श्रीव्रजराज नन्दन की आकृति तुम्हारी ही जैसी है, जिन्होंने मेरे मन को हर लिया है। अत: तुम मेरे पास रहो। जैसे भौजाई अपनी ननद के प्यार करती है, उसी प्रकार मैं तुम्हारा आदर करूँगी । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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