गर्ग संहिता
द्वारका खण्ड : अध्याय 1
आकाश में उन वीरों को पकड़कर पति बनाने के निमित्त वे आपस में कलह करने लगीं। वे कहतीं- ‘ये तो मेरे अनुरूप हैं, अत: मैं ही इनका वरण करुंगी। इस प्रकार उनमें आसक्त-चित्त हुई सुरबालाएँ परस्पर विवाद पर उतर आयी थीं। कुछ धर्मपरायण वीर मार्तण्ड मण्डल का भेदन करके सीधे भगवान विष्णु के दिव्यधाम में चले गये। शेष सेना को त्रिलोकी का बला धारण करने वाले बलदेवजी कुपित हो हल से खींचकर मुसल से मारने लगे। इस प्रकार जरासंध की सेना का सब ओर संहार हो जाने पर दुर्योधन, विन्ध्यराज तथा वंगनरेश- सब भयभीत हो रणभूमि से इधर-इधर भाग गये।।२२-३६।। राजन् ! तब दस हजार हाथियों के समान बलशाली महापराक्रमी जरासंध रथ पर आरुढ़ बलदेवजी के सामने आया। यदुश्रेष्ठ बलराम ने जरासंध के सुन्दर रथ को हलाग्रभाग से खींचकर मुसल की चोट से चूर्ण कर डाला। सारे शस्त्र समूह को त्यागकर बलदेव को दोनों हाथों से पकड़ लिया। फिर उन दोनों में रणभूमि के भीतर घोर युद्ध होने लगा। मैथिल ! आकाश में खड़े देवताओं तथा भूतल पर विद्यमान मनुष्यों के देखते-देखते वे दोनों महाबली वर मल्लयुद्ध में दो सिंहों के समान जूझने लगे। वे छाती से, मस्तक से, भुजाओं से चोट करते हुए पृथक-पृथक पैरों को पकड़कर एक दूसरे को गिराने की चेष्टा करते थे। उन दोनों के युद्ध से वहाँ का सारा भूखण्ड मण्डल खुदकर गड्डे के समान हो गया। उस समय भूमि सहसा बटलोई की तरह दो घड़ी तक कांपती रही। तब यदुश्रेष्ठ बलराम ने अपने बाहुदण्डों से जरासंध को पकड़कर इस प्रकार पृथ्वी पर दे मारा, मानो किसी बालक ने कमण्डलु पटक दिया हो। बलराम ने जरासंध के ऊपर चढ़कर उस शत्रु को मार डालने के लिये क्रोध से भरकर घोर मुसल हाथ में लिया। यह देख परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्ण ने उन्हें तत्काल रोक दिया। जरासंध ने लज्जित होकर तपस्या के लिये जाने का विचार किया, परंतु अपने मुख्यमन्त्रियों के मना करने पर मगधराज तपस्या के लिये न जाकर मगधदेश को ही लौट गया। इस प्रकार मधुसूदन माधव ने जरासंध पर विजय पायी।।३८-४८।। युद्ध में जो कुछ भी धन-वित हाथ लगा, वह सब सुखावह वैभव साथ लेकर यादवों को आगे करके, बलदेव सहित परिपूर्णतम साक्षात भगवान श्रीकृष्ण सूतों, मागधों और वन्दीजनों के मुख से विजय-गसन सुनते हुए, शंकध्वनि, दुन्दुभिनाद तथा वेद-मन्त्रों के भरी घोष के साथ मथुरापुरी में प्रविष्ट हुए। मार्ग में मांगलिक वस्तुओं, खीलों और फूलों से उनकी पूजा होती थी। प्रत्येक द्वार पर मंगल-कलश से सुशोभित पुरी की शोभा देखते हुए पीताम्बरधरी, श्यामसुन्दर-विग्रह, शुभांग शोभित चमकीने किरीट, अंगद और कुण्डलों से उद्भासित, र्शांग आदिवस्त्र शस्त्रों को धारण करने वाले भगवान गरुड़ ध्वज, तालध्वज बलराम के साथ, मुख से मन्दहास की छटा बिखेरते हुए राजा उग्रसेन के पास जा, उन्हें सारी धन-सामग्री भेंट की। उस समय चंचल घोड़ों से जुता हुआ उनका रथ उदीप्त हो रहा था तथा देवगण उनकी पूजा प्रशंसा कर रहे थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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