गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 58
श्रीकृष्ण द्वारा कंस आदि का आवाहन और उनका श्रीकृष्ण को ही परमपिता बताकर इस लोक के माता-पिता से मिले बिना ही वैकुण्ठलोक को प्रस्थान श्रीगर्गजी कहते हैं- राजन ! इसके बाद महात्मा श्रीकृष्ण के आवाहन करने पर कंस आदि नौ भाई सब के सब वैकुण्ठ से शीघ्र ही वहाँ आ गये। उनको आया देख वहाँ सब लोगों को बड़ा विस्मय हुआ। द्वारका में पहुँचकर उन कंस आदि सब भाइयों ने बारी-बारी से श्रीकृष्ण, बलराम, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध को प्रणाम किया। नरेश्वर ! सुधर्मा सभा में इन्द्र क सिंहासन पर रानी रुचिमती के साथ बैठे हुए महाराज उग्रसेन ने अपने कंस आदि पुत्रों को श्रीकृष्ण स्वरुप एवं चार भुजाधारी देखा। देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। वे शंख, चक्र, गदा और पद्म से विभूषित थे तथा पीताम्बर धारण किये श्रीकृष्ण के पास खडे़ थे। राजा ने अपने उन पुत्रों को भी निकट बुलाया। तब भगवान श्रीकृष्ण ने मन्द मुस्कान के साथ कंस आदि से कहा- ‘देखो, वे दोनों तुम्हारे माता-पिता हैं और तुम्हें देखने के लिए उत्सुक हैं। वीरों ! तुम उनके निकट जाकर भक्तिभाव से नमन करो’। भगवान श्रीकृष्ण का यह वचन सुनकर उन्हीं के किंकरभाव को प्राप्त हुए वे कंस, न्यग्रोध आदि सब भाई बडे़ हर्ष से भरकर बोले। कंस आदि ने कहा- नाथ ! आपकी माया से संसारचक्र में घूमते हुए हमें ऐसे पिता और ऐसी माताएं बहुत प्राप्त हो चुकी है। ‘श्रीहरि ही जीवमात्र के वास्तविक पिता है’- ऐसी सनातन श्रुति है। अत: हमलोग आपके निकट रहकर अब दूसरे किसी माता-पिता को नहीं देखेंगे। पूर्वकाल में युद्ध के अवसर पर हमने बलराम सहित आपका दर्शन किया था। उसके बाद द्वारका में प्रद्युम्न और अनिरुद्ध जी का प्रादुर्भाव हुआ, जिन्हें हम लोगों ने नहीं देखा था। अत: चतुर्व्यूह रूप में आपका दर्शन करने के लिए हम लोग यहाँ आये हैं। अहो ! बड़े सौभाग्य की बात है कि आज हम लोगों ने श्रीकृष्ण, बलभद्र, प्रद्युम्न और अनिरूद्ध- इन चारों परिपूर्णतम महापुरुषों का दर्शन किया। हम नहीं जानते कि किस पूर्वपुण्य के प्रभाव से इन परिपूर्णतम चतुर्व्यूह स्वरूप का, बड़े-बड़े संतों के लिए भी दुर्लभ हैं, हमें दर्शन मिला है। हे संकर्षण ! हे श्रीकृष्ण ! हे प्रद्युम्न ! और हे ऊषावल्लभ अनिरुद्ध ! हम मूढ़ हैं, कुबुद्धि हैं। आप हमारे अपराध को क्षमा करें। गोविन्द ! अब वैकुण्ठ में पधारिये। आपका वह सुन्दर धाम आपके बिना सूना लग रहा है। आपके रहने से द्वारकापुरी वैकुण्ठ से अधिक वैभवशालिनी और धन्य हो गयी है। ब्रह्मा, इन्द्र, अग्नि, सूर्य, शिव, मरुद्गण, यम, कुबेर, चन्द्रमा तथा वरूण आदि ने जिनका पूजन किया है, आपके उन्हीं चरणारविन्दों का हम सदा भजन करते हैं। बड़े-बड़े़ मुनीश्वर, लक्ष्मी, देवता, भक्तजन तथा सात्वतवंशियों ने गन्ध, चन्दन, धूप, लावा, अक्षत, दूर्वांकुर और सुपारी आदि से जिनका भलीभाँति पूजन किया है, आपके उन्हीं चरणारविन्दों का हम सदा भजन करते हैं। श्रीगर्गजी कहते हैं- नरेश्वर ! ऐसा कहकर वे कंस आदि सब भाई सबके देखते-देखते वैकुण्ठ धाम को चले गये तथा पत्नी सहित राजा उग्रसेन आश्चर्य से चकित रह गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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