गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 54
उन सबका यह वचन सुनकर अनिरुद्ध मेरी ओर देखते हुए बोले– विप्रवर ! आपकी कृपा से ही मार्ग में और प्रत्येक युद्ध में बहुत से शत्रुओं द्वारा पकड़ा जाने पर भी यह अश्व उनसे छुड़ा लिया गया है। गुरु के अनुग्रह से ही मनुष्य सुखी होता है। इसलिए अपनी शक्ति के अनुसार विधिपूर्वक गुरुदेव का पूजन करना चाहिए । इसके बाद अन्य सब भूपाल बलराम और श्रीकृष्ण के समीप आए तथा सब लोगों ने प्रसन्न एवं प्रेममग्न होकर अलग–अलग बारी बारी से उनके चरणों में प्रणाम किया। उन समस्त भूपालों को नतमस्तक देख बलराम सहित श्रीकृष्ण ने चंद्रहास, भीष्म, बिंदु, अनुशाल्व, हेमांगद और इंद्रनील आदि सबको बड़े हर्ष के साथ हृदय से लगाया। अत: श्रीकृष्ण से बढ़कर दूसरा कोई इस भूतल पर नहीं है। नृपेश्वर ! तदनंतर उस यात्रा से विजयी होकर लौटे हुए अनिरुद्ध को हाथी पर बिठाकर वसुदेवजी समस्त यादवों और मुदित पुत्र–पौत्रों के साथ प्रसन्नतापूर्वक कुशस्थलीपुरी में गए। उस समय देवांगनाएँ उन सबके ऊपर फूलों और मकरंदों की वर्षा करने लगीं तथा हाथियों पर बैठी कुमारियों ने खीलों और मोतियों की वृष्टि की। वे सब लोग नृत्य, गान, गीत और वेद मंत्रों के घोष से सुशोभित हो, जिसकी सड़कों पर छिड़काव किया गया था उस द्वारकापुरी की शोभा निहारते हुए पिण्डारक क्षेत्र में गए, तब राजा यादवों के उस देवदुर्लभ वैभव को देख कर आश्चर्य चकित हो अपने–अपने वैभव की निंदा करने लगे। उन्होंने यज्ञस्थल को भी देखा, जो घी की सुंगध से धूम जाल तथा ब्राह्मणों के मंत्र घोष से व्याप्त था। फिर वहाँ असिपत्र–व्रतधारी यदुकुल तिलक महाराज उग्रसेन को भी उन्होंने देखा, जो देवराज इंद्र के समान तेजस्वी, जितेंद्रिय, हृष्ट–पुष्ट और दीप्तिमान थे। वे कुशासन पर बैठे बड़े सुंदर लग रहे थे। उन्होंने नियम–निर्वाह के लिए आभूषण उतार दिए थे। हाथ में मृग का शृंग ले रखा था और अपनी रानी के साथ मृगछाला पर ही वे विराजमान थे, जो उक्त कुशासन के ऊपर बिछा था। महाराज उग्रसेन घृत, गंध और अक्षत आदि से यज्ञ मंडप में अग्नि की पूजा कर रहे थे। उनके साथ ऋषि मुनि बैठे थे और उनके नेत्र धुआं लगने के कारण लाल हो गए थे । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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