गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 36
दैत्य राजकुमार ने कहा– मैं शत्रु के सम्मुख संग्राम में मरने से नहीं डरता। मृत्यु तो सभी प्राणियों की होती ही है, परंतु तुम इस समय संग्राम में मेरे वध के लिए जो भी महान बाण छोड़ोगे, उसे मैं अपने बाण से उसी क्षण शीघ्र काट दूँगा, इसमें संशय नहीं है। जो लोग अभिमानवश इस पृथ्वी पर एकादशी को अन्न खाते हैं तथा माता, भौजाई, बहन और बेटी के साथ पाप करते हैं, उन सबका पाप मुझे ही लगे, यदि मैं तुम्हारे बाण को न काट डालूँ। यह सुस्पष्ट बात सुनकर सुनन्दन के मन में शंका हो गई। अत: वे भी श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए फिर बोले । सुनन्दन ने कहा– यदि मैंने छल-कपट छोड़कर सच्चे मन से श्रीकृष्ण के युगल चरणारविंदों का सेवन किया हो तो मेरी बात सत्य हो। वीर ! यदि मैं अपनी पत्नी को छोड़ कर दूसरी किसी स्त्री को कामभाव से न देखता होऊँ तो इस सत्य के प्रभाव से संग्राम भूमि में मेरा यह कथन अवश्य सत्य हो । ऐसा कहकर सुनन्दन ने महाकाल और अग्नि के समान एक तीखे सायक को मंत्र से अभिमंत्रित करके छोड़ा। उस बाण को छूटा हुआ देख दैत्य राजकुमार ने अपने बाण से तत्काल काट दिया, ठीक उसी तरह, जैसे पक्षिराज गरुड़ अपने पंख से सर्प के दो टुकड़े कर डालते हैं। राजन् ! उस बाण के कटते ही तुरंत हाहाकार मच गया। लोको सहित पृथ्वी डोलने लगी और वे देवता भी विस्मय में पड़ गए। बाण का नीचे वाला आधा भाग तो कट कर गिर पड़ा, किंतु फलयुक्त पूर्वार्ध भाग ने उस दैत्य के मस्तक को उसी तरह काट गिराया, जैसे हाथी किसी वृक्ष के स्कन्ध (मोटी डाली) को तोड़ डालता है। उसके किरीट और कुण्डलों से युक्त मस्तक को कटकर गिरा देख समस्त दैत्य दु:खी होकर हाय हाय करने लगे। कुनन्दन के धड़ ने युद्धस्थल में शीघ्र उठकर खड़्ग से, घूंसों से और लातों की मार से बहुत से शत्रुओं को मौत के घाट उतार दिया। तत्पश्चात् यादव सेना में बार बार दुंदुभि बजने लगी और सुनन्दन के ऊपर देवताओं ने फूलों की वर्षा की । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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