गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 22
उस समय समस्त अन्वेषकों ने पुष्पवाले वृक्षों से व्याप्त अत्यंत अद्भुत उपवन में चामर बंधे हुए घोड़े को देखा, जिसे राजकुमार बिन्दु ने अनायास ही पकड़ लिया था। देखकर सबने अनिरुद्ध के निकट जाकर इसकी सूचना दी। सूचना पाकर धर्मज्ञ अनिरुद्ध विस्मित हुए। उन्होंने हंसते हुए बिंदु के पास उद्धवजी को भेजा। महाराज ! उस समय अवन्तीपुरी में महान कोलाहल छा गया। वहाँ एकत्र हुई भयंकर सेना को देख कर सब लोग भयभीत हो उठे थे। इसी समय अपने भाई की खोज–खबर लेने के लिए भयभीत अनुबिंदु एक करोड़ वीरों के साथ अपनी पुरी से बाहर निकला। वह दुग्धराशि के समान धवल एवं भाल पत्र से युक्त यज्ञ संबंधी अश्व को वहाँ अपने भाई द्वारा पकड़ा गया देख उसे मना करता हुआ बोला। अनुबिंदु ने कहा- भैया ! भगवान श्रीकृष्ण जिनके देवता हैं, उन यादवों का यह घोड़ा है। आप उनके साथ जो हमारा संबंध है, उसके बहाने या अपने कुल की कुशलता के लिए इस घोड़े को छोड़ दीजिए। यादवों की यह सेना तो देखिए। भैया ! पहले जो राजसूय यज्ञ हुआ था, उसमें इन यादवों ने देवता, दैत्य, मनुष्य और असुर सब पर विजय पाई थी। अनुबिंदु की यह बात सुनकर बड़ा भाई बिंदु हार मान गया। उसने घोड़े पर चढ़ कर आए हुए उद्धवजी से कहा। बिंदु बोला- मंत्रिवर ! मैंने मित्रों के साथ मिलने के लिए घोड़े को पकड़ रखा है। अत: आप सब लोगों को निमंत्रित किया जाता है। आज आप लोग यहीं ठहरें। राजन् ! यह सुनकर उद्धव बिंदु की सराहना करके बड़े प्रसन्न हुए और अनिरुद्ध के निकट जाकर उन्होंने सब समाचार बताया। नरेश्वर ! उद्धवजी का कथन सुनकर अनिरुद्ध का मन प्रसन्न हो गया। उन्होंने सेना सहित अवन्तीपुरी में शिप्रा नदी के तट पर पड़ाव डाल दिया। महाराज ! वहाँ दस योजन दूर तक के भू भाग में रंग बिरंगे अनेक शिविर पड़ गए। सभी सुवर्ण कलशों से युक्त थे। वे सुंदर शिविर वहाँ अद्भुत शोभा पा रहे थे। राजकुमार बिंदु ने वहाँ आए हुए सब लोगों का भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य– इन चारों प्रकार के भोजनों द्वारा आतिथ्य सत्कार किया। इसी तरह अवन्ती नरेश ने सेना वर्ती पशुओं को भी घास पात और अन्न आदि प्रदान किए। उन्होंने वृष्णिवंशी वीरों का इस प्रकार स्वागत सत्कार किया। राजाधिदेवी, उनके पति तथा दोनों राजकुमार सब के सब श्रीहरि के समस्त पुत्रों को देक कर बड़े प्रसन्न हुए। तदनन्तर रात में प्रद्युम्न अनिरुद्ध अपने बाबा के गुरु सान्दीपनि मुनि को बुलाकर उनके चरणों में प्रणाम किया। उन्हें आसन देकर बैठाया और उत्तम रीति से उनका पूजन करके कहा- भगवन ! द्वारका में भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से चक्रवर्ती यदुकुलतिलक महाराज उग्रसेन अश्वमेध यज्ञ कर रहे हैं। ब्रह्मन मुनिश्रेष्ठ ! आप मुझ पर कृपा करके उस श्रेष्ठ यज्ञ में अपने पुत्र सहित अवश्य पधारें। अनिरुद्ध का यह वचन सुनकर श्रीकृष्ण दर्शन के अभिलाषी सान्दीपनि मुनि ने वहाँ चलने का निश्चय किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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