गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 30
मनु बोले- वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध रूप से प्रकट आप भक्तजन-प्रतिपालक प्रभु को नमस्कार है। आप ही अनादि, आत्मा तथा अन्तर्यामी पुरुष हैं। आप प्रकृति से परे होने के कारण सत्त्वादी तीनों गुणों से अतीत है। प्रकृति को अपनी शक्ति से वश में करके गुणों द्वारा श्रेष्ठ विश्व की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं। अत: अज्ञानकल्पित इस प्रपच्च को सब ओर से छोड़कर इस सम्पूर्ण जगत को मन का संकल्प मात्र जानकर माया से परे जो निर्गुण आदि पुरुष, सर्वज्ञ, सबके आदि कारण, अन्तर्यामी एवं सनातन परमात्मा है, उन्हीं आपका मैं आश्रय लेता हूँ। जो इस विश्व सो जाने पर भी जागते हैं; जिन्हें जगत के लोग नहीं जानते; जो सत से परे, सर्वद्रष्टा एवं आदि पुरुष हैं; जिन्हें अज्ञानीजन नहीं देख पाते; जो सर्वथा स्वच्छ-शुद्ध-बुद्ध स्वरूप हैं, उन आप परमात्मा का मैं भजन करता हूँ। जैसे आकाश घट से, अग्नि काष्ठ से तथा वायु अपने ऊपर छाये हुए धूलकणों से लिप्त नहीं होते, उसी प्रकार आप समस्त गुणों से निर्लिप्त हैं। जैसे स्फटिक मणि दूसरे-दूसरे रंगों के सम्पर्क से उस रंग की दिखायी देने पर भी स्वरूपत: परम उज्ज्वल हैं, उसी प्रकार आप भी परम विशुद्ध हैं। व्यंजना, लक्षणा अथवा अभिधा शक्ति से, वाणी के विभिन्न मार्गों से तथा स्फोटपरायण वैयाकरणों द्वारा भी परमार्थ-पद का सम्यग्ज्ञान नहीं प्राप्त किया जाता। साधु वाच्यार्थ एवं उत्तम ध्वनि के द्वारा भी जिसका बोध नहीं हो पाता, वही ब्रह्म लौकिक वाक्यों द्वारा कैसे जाना जा सकता है। जिसे इस पृथ्वी पर कुछ लोग (मीमांसक) ‘कर्म’ कहते हैं, कुछ लोग (नैयायिक) ‘कर्ता’ कहते हैं, कोई ‘काल’ कोई ‘परमयोग’ और कोई ‘विचार’ बताते हैं, उसे ही वेदान्त वेत्ताज्ञानी ‘ब्रह्म’ कहते हैं। जिसे इस लोक में कालज गुण, ज्ञानेन्द्रियां, चित्त, मन और बुद्धि नहीं छू पाती है तथा वेद भी जिसका वर्णन नहीं कर पाते, वह ‘परब्रह्म’ है। जैसे चिनगारियाँ अग्नि में प्रवेश करती हैं, उसी प्रकार सारे तत्व उस परब्रह्म में ही विलीन होते हैं। जिसे संतलोग ‘हिरण्यगर्भ’ ‘परमात्म तत्व‘ और ‘वासुदेव’ कहते हैं, ऐसे ब्रह्मस्वरूप आप ही ‘पुरुषोत्तमोत्तम’ हैं- यह जानकर मैं सदा असंग भाव से विचरण करता हूँ।[1] श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! मनु का यह वचन सुनकर उस समय भगवान प्रद्युम्न हरि मन्द-मन्द मुस्कराते हुए गम्भीर वाणी द्वारा उन्हें मोहित करते हुए से बोले । प्रद्युम्न ने कहा- महाराज् ! आप हम क्षत्रियों के आदिराजा, पितामह, वृद्ध श्लाघनीय तथा धर्म धुरंधर हैं। राजन् ! हम लोग आपके द्वारा रक्षणीय तथा सर्वत: पालनीय प्रजा हैं। आप जो दिव्य तप करते हैं, उससे जगत को सुख मिलता है। आप जैसे साधुपुरुष परमात्मा श्री हरि के स्वरूप हैं; अत: वे ही सदा ढूंढने योग्य हैं। साधु पुरुष ही मनुष्यों के अन्त:करण में छाये हुए मोहान्धकार का हरण करते हैं, सूर्यदेव नहीं। श्री नारदजी कहते हैं- राजन् ! यो कहकर मनु को प्रणाम करके, उनकी अनुमति ले, परिक्रमा करके, भगवान श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न स्वयं नीचे की भूमि पर उतर गये।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ * नमस्ते वासुदेवाय नम: संकर्षणाय च। प्रद्युम्नायानिरुद्धाय सात्वतां पतये नम: ।।
अनादिरात्मा पुरुषस्त्वमेव त्वं निर्गुणाऽसि प्रकृते: परस्त्वम्। सदा वशीकृत्य बलात्प्रधानं गुणै: सृजस्यत्सि च पासि विश्वम् ।
ततो विवेकं स विहाय सर्वतो मत्वाखिलं चात्र मनोमयं जगत्। मायापरं निर्गुणमादिपूरुषं सर्वत्रमाद्यं पुरुषं सनातनम् ।।
जागर्ति योऽस्मिञ्शयनंगते सति नायं जनो वेद सत: परं तम्। पश्यन्तमाद्यं पुरुषं हि यज्जनो न पश्यति स्वच्छमलं च तं भजे ।।
यथा नभोऽग्नि: पवनो न सज्जते घटेन काष्ठेन रजोभिरावृतै:। तथा भवान् सर्वगुणैश्च निर्मलो वर्णैर्यथा स्यात् स्फटिको महोज्ज्वल: ।।
व्यंगयेन वा लक्षणया च वाक्पथैरर्थं पदं स्फोटपरायणै: परम्। न ज्ञायते यद्धनिनोत्तमेन सदवाच्येन तद् ब्रह्म कुतस्तु लौकिकै: ।।
वदन्ति केचिद् भुवि कर्म कर्तृ यत्कालं च केचित् परयोगमेव तत्। केचिद् विचारं प्रवदन्ति यच्च तद् ब्रह्मेति वेदान्तविदो वदन्ति ।।
यं न स्पृशन्तीह गुणा न कालजा ज्ञानेन्द्रियं चित्तमनो न बुद्धय:। महान्न वेदो वदतीति तत्परं विशन्ति सर्वे ह्यनले स्फुलिंगवत् ।।
हिरण्यगर्भं परमात्मतत्वं यद् वासुदेवं प्रवदन्ति सन्त:। एवंविधं त्वां पुरुषोत्तमोत्तमं मत्वा सदाहं विचराम्यसंग: ।।-(गर्ग0 विश्वजित0 30। 38-46)
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