गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 22
नारद जी ने कहा- राजन्! तुमने बहुत अच्छी बात पूछी। तुम भगवत्प्रभाव के ज्ञाता होने के कारण धन्य हो। इस भूतल पर श्रीकृष्ण चरित्र को सुनने के पात्र तुम्हीं हो। नरेश्वर ! श्रीकृष्ण के चले जाने पर अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर ने शत्रुओं से ही प्रद्युम्न की रक्षा करने के लिये स्नेहवश उनके साथ शीघ्र ही अपने भाई अर्जुन को भी जाने की आज्ञा दे दी; क्योंकि उनके मन में बाही शत्रुओं से प्रद्युम्न आदि पर भय आने की आशंका हो गयी थी। मिथिलेश्वर ! तदनन्तर अर्जुन के साथ यदुश्रेष्ठ प्रद्युम्न विशाल सेना को अपने साथ लिये तत्काल त्रिगर्त जनपद में जा पहुँचे। त्रिगर्त के राजा धनुर्धर सुशर्मा ने शंकित होकर महामना प्रद्युम्न को भेंट दी। फिर मत्स्य देश के राजा विराट से पूजित होकर, यादवेश्वर प्रद्युम्न ने सरस्वती नदी में स्नान करके कुरुक्षेत्र तीर्थ का दर्शन किया। फिर पृथूदक, बिन्दु-सरोवर त्रितकूप और सुदर्शन आदि तीर्थों में होते हुए, सरस्वती में स्नान करके, वहाँ अनेक प्रकार के दान दे वे आगे बढ़ गये। कौशाम्बी[1] नगरी में पहुँचने पर सारस्वत प्रदेश के राजा कुशाम्ब ने प्रद्युम्न को भेंट नही दी क्योंकि वे दुर्योधन के वशीभूत होने के कारण उसी के पिछलग्गू थे। तब प्रद्युम्न की आज्ञा पाकर चारुदेष्ण, सुदेष्ण पराक्रमी चारुदेह, सुचारु, चारुगुप्त, भद्रचारु, चारुचन्द्र, विचारु और दसवें चारु- इन दसों रुक्मिणी पुत्रों ने सिंधी घोड़ों पर सवार हो, सबके देखते-देखते कौशाम्बी नगरी को चारों ओर से घेर लिया। उनके बाणों से राजधानी के महलों के शिखर, ध्वज, कलश और तोलिका आदि चूर-चूर होकर उसी प्रकार गिरने लगे, जैसे वानरों के प्रहार से लंका की अट्टालिकाएं टूट-टूटकर गिरने लगीं थीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इतिहास प्रसिद्ध कौशाम्बी नगरी तो इलाहाबाद जिले के ‘कोसम’ नाम से प्रसिद्ध ग्राम के आस-पास रही है। यह बात खुदाई आदि से भी सिद्ध हो चुकी है। यहाँ जिस ‘कौशाम्बी’ की चर्चा है, वह दूसरी ही है, राजा कुशाम्ब के नाम पर बसी हुई राजधानी को ‘कौशाम्बी’ कहा गया है।
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