गर्ग संहिता
विश्वजित खण्ड : अध्याय 12
अगस्त्यजी ने कहा- रुक्मणीनन्दन ! तुम साक्षात परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के पुत्र हो, तथापि मुझसे प्रश्न करते हो ! तुम्हारा यह प्रश्न पूछना लीलामात्र है (क्योंकि तुम सर्वज्ञ हो)। प्रभो ! जैसे भगवान श्रीहरि लोक-संग्रह के लिये ही कर्म करते हैं, उसी प्रकार तुम भी मनुष्यों का कल्याण करने के लिये विचर रहे हो। जैसे सत्य सूर्य का जल में जो प्रतिबिम्ब दिखायी देता है वह मिथ्या होने पर भी सत्य-सा प्रतीत होता है, उसी प्रकार प्रकृति और परमात्मा का प्रतिबिम्ब स्वरूप यह दृश्य जगत असत होने पर भी सत्य-सा दृष्टिगोचर होता है। जैसे शीशे में प्रतीति होती है, उसी प्रकार यह सत् परमात्मा देहगत सत्त्वादि गुणों से बद्ध जान पड़ता है- अन्त:करणरुपी दर्पण में सत् का प्रतिबिम्ब ही जीवरूप में प्रतीति गोचर होता है। (शीशे में मुख आबद्ध न होने पर भी बद्ध सा प्रतीत होता है, उसी प्रकार नित्य मुक्त परमात्मा सत्त्वादि गुणमय अन्त:करण में प्रतिबिम्बित होकर बद्ध सा जान पड़ता है) । प्रद्युम्न ने पूछा- ब्रह्मज्ञ- शिरोमणे ! जिस उपास से दृढ़ वैराग्य प्राप्त करके देहधारी जीव कथापि बन्धन में न पडे़ वह मुझे बताइये । अगस्त्यजी ने कहा- जो विेवेक का आश्रय लेकर जगत को मानेमय मानकर सनातन ब्रह्म का भजन करता है, वह परमपद को प्राप्त होता है। राजन् ! उस परमात्मा को जन्म, मृत्यु, शोक, मोह, बाल्य, यौवन, जरा, अंता, मद, व्याधि का डर सुख, दु:ख, क्षुधा, रति, मानसिक चिन्ता और भय कभी नहीं प्राप्त होते क्योंकि आत्मा निरीह (चेष्टा रहित), निराकार, सर्वथा अहंकारशून्य, शुद्धस्वरूप, गुणों का आश्रय, साक्षात परमेश्वर, निष्कल तथा आत्मद्रष्टा है। जिसको मुनीश्वरों ने सदा पूर्ण एवं ज्ञानपय जाना है, उस परब्रह्म परमात्मा को जानकर यह जीव सुखपूर्वक विचरे। जो पुरुष इस जगत के सो जाने पर भी जागता है, उस द्रष्टा को यह लोक कभी नहीं देखता, कदापि नहीं जानता। जैसे विभिन्न रंगों से स्फटिकमणि कभी लिप्त नहीं होती तथा जैसे आकाश कोठे से, अग्नि काष्ठ से और वायु उड़ी हुई धूल से लिप्त नहीं होती, उसी प्रकार ब्रह्म गणों से कभी लिप्त नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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