गर्ग संहिता
द्वारका खण्ड : अध्याय 16
रानियां बोलीं- प्रभो ! आपके मुंह से पहले हमने राधा के रूप की बड़ी बढाई सुनी है, जिनके प्रति तुम सदा अनुरक्त रहने हो और वे भी सदा तुम्हारे अनुराग के रग में रंगी रहती है। आज हम उन्हीं तुम्हारी व्रजवासिनी प्रियतमा राधा को देखना चाहती हैं, जो सदा तुम्हारे वियोग से खिन्न रहती हैं और यहाँ स्नान के लिये आयी हुई हैं। नारदजी कहते हैं- राजन् ! तब ‘तथास्तु’ कहकर पटरानियों से घिरे हुए श्रीकृष्ण सोलह हजार रानियों के साथ दर्शन करने के लिये गये। सोने के रमणीय शिविर में- जो ध्वजा पताकाओं से सुशोभित था और सदा जिस सुन्दर शिविर में चन्द्रमण्डल की शोभा को तिरस्कृत करने वाला चंदोवा तना था; मोतियों की झालरों से युक्त परदा लगा था और जहाँ स्वच्छ वस्त्रों का सुन्दर बिछौना बिछा था; मालती के मकरन्द एवं इत्र आदि की सुगन्ध जहाँ सब ओर छा रही थी और उसी के कारण भ्रमरावलियां जहाँ मधुर गुंजन कर रही थीं– पटरानी श्रीराधा, जिनका चित श्रीकृष्ण ने चुरा लिया था, विराजमान थीं और सिखियां हंस के समान श्वेत एवं दिव्य व्यंजन डुलाकर उनकी सेवा करती थीं। कोई सखी उनके ऊपर छत्र ताने हुई थीं, कुछ सखियां झूले की डोर पकड़कर झुला रही थीं, कुछ इधर-उधर आती जाती दिखायी देती थीं। श्रीराधा के कोने में बालरवि के समान कान्तिमान कुण्डल झलमला रहे थे। विद्युत के समान उद्दीप्त माला धारण करने के कारण उनकी मनोहरता और भी बढ़ गयी थी। उनके श्रीअंगों से कोटि चन्द्रमाओं के समान प्रकाश फैल रहा था। वे तन्वंगी तथा कोमलांगी थीं। वे अपने पैरों की सुन्दर अंगुलियों के अग्रभाग से पुष्पाच्छादित मनोहर भूमि पर अत्यन्त कोमल चरणारविन्द धीरे-धीरे रख रही थीं। महाराज ! उन श्रीराधा को दूर से ही देखकर श्रीकृष्ण की वे सहस्त्र रानियां उनके रूप से अत्यन्त मोहित होकर मूर्च्छित हो गयीं। उनके तेज से इनकी कान्ति उसी तरह विलुप्त हो गयी, जैसे सूर्योदय होने पर तारिकाएं। इन्हें जो रूप का अभिमान था वह जाता रहा ये सब रानियां परस्पर इस प्रकार कहने लगीं- अहो ! ऐसा अद्भुत रूप तो तीनो लोकों में कहीं भी नहीं है। हमने इनके अद्वितीय मनोहर रूप को जैसा सुना था, वैसा ही देखा। ‘इस प्रकार आपस में बात करती हुई वे रानियां श्रीकृष्ण को आगे करके श्रीराधिका के पास जा पहुँचीं। गोपांगनाओं तथा राजकुमारियों के नेत्र आपस में मिलें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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