गर्ग संहिता
द्वारका खण्ड : अध्याय 14
राजा रैवत उस पर्वत को चुरा लाने के लिये ज्यों ही प्रस्थित हुए, उनसें भी पहले मैं श्री शैल के नगर में जा पहुँचा। मुझे कलह प्रिय लगता है, इसलिये मैंने महात्मा श्रीशैल को राजा का उसके पुत्र की चोरी से सम्बन्ध रखने वाला सारा वृतान्त कह सुनाया। श्रीशैल ने पुत्र के मोहवश उसको डांटकर कहा- ‘तू कहा जा रहा है ?’ इसके बाद श्रीशैल गिरिराज सुमेरु और नगेश्वर हिमवान के पास गया। वह धर्मात्मा पर्वत पुत्र-स्नेह से बहुत व्याकुल था। उसने उन पर्वतराजों से कहा- ‘मुझे दैव ने यही एक पुत्र दिया है, मेरे बहुत से पुत्र नहीं है; उस एक को भी यहाँ से हर ले जाने के लिये महाबली राजा रैवत आये हैं। इन महात्मा राजा के कारण मेरे पुत्र विेदेश चला जा रहा है। मैं पुत्र स्नेह से विकल होकर आप दोनों की शरण में आया हूँ। आप लोग रजा रैवत को जीतकर शीघ्र ही मुझे मेरा पुत्र दिला दें। जाति के प्रति पक्षपात होन के कारण वे दोनों पर्वत, सुमेरु और हिमालय, लाखों दूसरे पर्वतों से घिरे हुए तुरंत ही युद्ध के लिये आये। उधर हनुमानजी ने जैसे द्रोणगिरि को उखाड़ बलपूर्वक ऊपर उठा लिया और ज्यों ही वहाँ से चलने का विचार किया, त्यों ही अस्त्र-शस्त्र धारण किये बहुत से पर्वतों को वहाँ उपस्थित देखा उन्हें देखकर राजा ने उच्च स्वर से अट्टहास किया, मानो विद्युत्पात की गड़गड़ाहट हुई हो। उनके उस सिंहनाद से सातों लोकों और सातों पातालों साथ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड गूंज उठा। उसी समय उन समस्त योद्धाओं के हाथों से सारे अस्त्र-शस्त्र स्वत: गिर गये। जब वे पर्वत नि:शस्त्र हो गये, तब बार-बार कोलाहल करते हुए मार्ग में पर्वत सहित जोते हुए रैवत को मुक्कों और घुटनों से उसी प्रकार मारने लगे, जैसे पूर्वकाल में द्रोणाचल के रक्षक महाबली हनुमानजी के पीछे उन्हें मार गिराने के लिये ये कुछ दूर तक गये थे। उन पर्वतों के चोट करने पर भी राजा रैवत ने अपने हाथ से उक्त पर्वत को नहीं छोड़ा । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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